कन्नौज पर प्रभुत्व स्थापित के लिए हुए त्रिपक्षीय (त्रिकोणात्मक) संघर्ष का विवरण प्रस्तुत करें।

Ques. - कन्नौज पर प्रभुत्व स्थापित के लिए हुए त्रिपक्षीय संघर्ष का विवरण प्रस्तुत करें। Give a description of the  tripartite struggle for the Establishment of supremacy over Kannauj


पाल गुर्जर प्रतिहार एवं राष्ट्रकूट उत्तर भारत के प्रमुख नगर कन्नौज पर आधिपत्य जमाने के लिये लम्बे समय तक संघर्ष करते रहे |पूर्व मध्यकालीन उत्तर भारत में साम्राज्य विस्तार हेतु तीन प्रमुख शक्तियाँ पाल, प्रतिहार एवं राष्ट्रकूट प्रयास कर रही थी | साम्राज्य विस्तार हेतु घटित इस त्रिपक्षीय संघर्ष की अनवरत श्रृखंला प्राचीन भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है । इसे ही त्रिशक्ति संघर्ष, त्रिपक्षीय संघर्ष, त्रिकोणात्मक संघर्ष, त्रिवंशीय त्रिराज्यीय संघर्ष आदि नामों से जाना जाता है । तत्कालीन परिस्थितियों मे कन्नौज पर अधिपत्य किए बिना उत्तरभारत का राजा बनना तथा चक्रवर्ती सम्राट कहलाना सम्भव नहीं था । इनके परस्पर संघर्ष मे आक्रमण तथा प्रत्याक्रमण की श्रृखंला शक्ति परीक्षण तथा शक्ति सन्तुलन के उद्देश्य से लगभग पोने दो सौ साल तक चलती रही कान्यकुब्ज (कन्नौज) पर निर्बल आयुध वंश से उत्पन्न राज्य था । जिससे प्रोत्साहित होकर परिस्थिति का लाभ उठाकर प्रतिहार ओर पाल दोनों वंशों ने कान्यकुब्ज राज्य को अपने अधिकार में रखने की कोशिश की । अवसर पाकर दक्षिणी भारत के राष्ट्रकूट वंश ने भी उत्तर भारत की राजनीति में भाग लिया । परिणामत; इन तीनों वंशों के बीच दीर्धकालीन संघर्ष का सूत्रपात हुआ । जिसे त्रिपक्षीय संघर्ष कहा जाता है । यह त्रिपक्षीय संघर्ष पूर्वमध्यकालीन भारत की आठवीं व नोवीं शताब्दि की एक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है । ये सभी हर्षोत्तर काल में उत्तरीभारत में उत्पन्न हुई रिक्तता का लाभ उठाकर गंगा घाटी का स्वामित्व प्राप्त करना चाहते थे, और कन्नौज इस राजनीतिक लक्ष्य का प्रतीक बन गया था |

त्रिपक्षीय संघर्ष के जानकारी के स्रोत
त्रिपक्षीय संघर्ष के विषय में जानकारी सामान्यत: इसमें संलग्न शासकों तथा उनके राजवशों के अभिलेखो तथा तत्कालीन व कालान्तर में रचित साहित्य से प्राप्त होते है अभिलेखीय स्रोतो के रूप में मिहिर भोज का ग्वालियर अभिलेख धर्मपाल का भागलपुर ताम्रपत्र अभिलेख अमोधवर्ष प्रथम का संजन ताम्रपत्र लेख, बडौदा अभिलेख, डिंडौरी एवं राघनपुर के अभिलेख बादल स्तम्भ लेख, दुवकुण्ड अभिलेख,संजन अभिलेख आदि । साहित्यिक स्रोतो में ग्यारहवीं शती में सोड्ढल द्वारा रचित उदयसुन्दरी कथा तथा इन स्रोतों में विरोध भास स्वाभाविक है । संध्याकर नन्दी द्वारा रचित रामचरित में मिलती हैं । विदेशी यात्रियों में अरब यात्री सुलेमान का विवरणभी महत्त्वपूर्ण हैं |


कन्नौज की तत्कालीन स्थिति
कन्नौज का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व रहा है जिसमें वर्द्धनवंश तथा – जैसे शासकों ने अनेक नये आयाम और जोडे ।
परिणामत: कन्नौज साहित्यक तथा सांस्कृतिक गतिविधियों के केन्द्र के रूप में स्थापित हो गया ।

इतना ही नहीं तत्कालीन उत्तरभारत के अनेक यशस्वी साहित्यकार, दार्शनिक आदि कन्नौज की राज्यसभा में स्थान पाकर सम्मानित होते रहते थे । संस्कृत के वागपतिराज तथा भवभूति जैसे कवि यशोवर्म के आश्रय में रहते थे इनसे पूर्व बाणभट्ट जैसे उत्कृष्ट गद्यकार कन्नौज की राज्य सभा में रह चुके थे। यशोवर्म के गौरवपूर्ण इतिहास के पश्चात् लगभग बीस वर्ष तक कन्नौज का इतिहास स्पष्ट रूप से नही मिलता, यशोवर्म की मृत्यु के बीस वर्ष बाद एक नवीन राजवंश कन्नौज के राजनीतिक रंगमंच पर दिखाई पड़ता हैं । जिसके शासक कमश वज्रायुध, इन्द्रायुध एव चक्रायुध थे इन तीनों शासकों के अन्त में हम आयुध शब्द पाते है इसलिए इस वंश को आयुधवंश के नाम से जाना जाता है । यद्यपि पायर्स महोदय ने इन शासकों को यशोवर्म का उत्तराधिकारी ही माना है | इसी आयुधवंश के राज्यकाल में त्रिपक्षीय संघर्ष की शुरुआत हुई ।

इस वंश के ज्ञात तथा त्रिपक्षीय संघर्ष से सम्बन्धित राजाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है –

1 वजायुध
दसवीं शताब्दी की प्रसिद्ध कृति कर्पूरमंजरी में वज्रायुध नाम के शासक की चर्चा मिलती है | जिसे पंचाल के राजा के रूप में उल्लिखित किया गया है । इसकी राजधानी कन्नौज ही बताई गई है । जैन रचना हरिवंश से ज्ञात होता है कि कन्नौज में इन्द्रायुध नाम का एक शासक सन् 783 ई. में राज्य कर रहा था । इससे अनुमानित है कि वज़ायुध का शासन 783 ई. के पूर्व भी रहा होगा । कुछ इतिहासकारों ने वज्रायुध को 770 ई. के आस-पास का शासक माना है । कल्हणकृत राजतरंगिणी से पता चलता है कि काश्मीर के राजा जयपीड विनयादित्य ने कन्नौज के राजा को पराजित किया । यदि जयपीड विनयादित्य ने अपने शासन के प्रारम्भिक चरण में कन्नौज पर आक्रमण था, तो कन्नौज का शासक वज्रायुध रहा होगा, परन्तु यदि उसने अपने शासन के उत्तरकाल में आक्रमण किया तो उस समय कन्नौज का शासक इन्द्रायुध ही रहा होगा।

2 इन्द्रायुध
इन्द्रायुध नाम का शासक वज्रायुध के पश्चात् हुआ । जैन हरिवंश से विदित होता है कि इन्द्रायुध उत्तर के राजा के रूप में प्रसिद्ध था | डॉ.ए.एस. अल्टेकर के अनुसार उत्तर भारत का प्रमुख नगर कन्नौज था, जिसका राजा इन्द्रायुध केवल पदवीधारी सम्राट था । इसी समय बंगाल में पालवंश, उज्जैन में गुर्जर प्रतिहार वश और दक्षिण के राष्ट्रकूट वंश का उत्कर्ष हो रहा था । तीनों वंशों की साम्राज्यवादिता की नीति का शिकार निर्बल इन्द्रायुध को होना पड़ा । तीनों वंशों के उत्तरी भारत पर आक्रमण करने के इसी संघर्ष को त्रिकोणात्मक संघर्ष के नाम से पुकारते हैं । सर्वप्रथम गुर्जर प्रतिहार वश के राजा वत्सराज ने कन्नौज पर अधिकार किया । इससे पाल वंश के राजा धर्मपाल को ईर्ष्या हुयी उसने कन्नौज पर आक्रमण किया परन्तु राजा वत्सराज ने पराजित किया । कुछ समय के पश्चात् राष्ट्रकूट का राजा ध्रुव उत्तरी भारत पर आक्रमण करके गुर्जर प्रतिहार नरेश वत्सराज एव पाल नरेश धर्मपाल दोनों वंशों के राजाओं को पराजित कर दक्षिण लौट गया । भागलपुर अभिलेख से विदित होता है कि जब ध्रुव दक्षिण को लौट गया, तब धर्मपाल ने कन्नौज पर आक्रमण कर वहां के राजा इन्द्रायुध को हटाकर चक्रायुध को राजा बनाया |

3 चक्रायुध
आयुध वंश का ज्ञात अन्तिम राजा चक्रायुध था । खालिमपुर अभिलेख से जानकारी मिलती है कि पाल नरेश धर्मपाल ने भोज (बरार प्रदेश), मतस्य (जयपुर), भद्र (मध्य पंजाब), कुरू (कुरूक्षेत्र), यदु (मथुरा), यवन, अवन्ती (मालवा), गान्धार (पेशावर), कीर (कांगड़ा घाटी) आदि प्रदेशों के राजाओं की एक सभा कर कन्नौज नरेश चक्रायुध का अभिषेक किया | सी.बी वैद्य महोदय का कथन है कि ये सभी प्रदेश धर्मपाल के अधीन थे । परन्तु वैद्य महोदय का यह तर्क अतिशयोक्ति प्रतीत होता है | कुछ समय के पश्चात् गुर्जर प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीय ने चक्रायुध पर आक्रमण कर उसे पराजित कर अपने राज्य में मिला लिया और यहीं से इस वंश का अन्त हो गया ।

 संघर्ष में भाग लेने वाली तीनों शक्तियों का परिचय
त्रिपक्षीय संघर्ष में जिन तीन शक्तियों ने भाग लिया उनमें गुजरात राजपूताना के गुर्जर प्रतिहार,दक्कन के राष्ट्रकूट और बंगाल के पाल थे | गुर्जर-प्रतिहारो का भारतीय इतिहास में जो महत्व है इसका बहुत दिनो तक सही मूल्यांकन नही हुआ किन्तु अब स्थिति कुछ परिवर्तित है तथा इतिहासकारो द्वारा इनका मूल्यांकन होने लगा है इस वंश की स्थापना मण्डोर(जोधपुर) के हरिचन्द्र राजा ने की किन्तु वंश का वास्तविक प्रथम महत्वपूर्ण राजा नागभट्ट प्रथम था।
     जिसने अरबों से लोहा लिया था और पश्चिमी भारत में एक शक्तिशाली सम्प्रभू राज्य की स्थापना की थी | ग्वालियर प्रशस्ति में उसे मलेच्छो का नाशक बताया गया हैं | नागभट्ट द्वितीय (लगभग 800 833 ई) ने पालवंश के धर्मपाल को हराया । इसके अतिरिक्त उसने आनर्त (उत्तरी काठियावाड) मालवा (मध्यभारत) मत्स्य (पूर्वीराजस्थान) किरात, (हिमालयदेश) तुरूष्क (अरब) तथा कौशाम्बी के वत्सो को पराजित किया । आंध्रसिंध विदर्भ कलिंग आदि सुदूर देशो ने भी इसकी बढती हुई शक्ति का अनुभव किया और वहा के राजा ने उससे सन्धि करनी चाही ।
इस वंश का अगला महत्त्वपूर्ण राजा मिहिरभोज लगभग 836-885 ई. में था जिसने दक्षिणी राजस्थान से उज्जैन होते हुए नर्मदा तक के विस्तृत प्रदेश पर विजय प्राप्त की । कालान्तर में इसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम (लगभग 885-915 ई.) गुर्जर प्रतिहार सत्ता का विस्तारक हुआ | कर्रमंजरी तथा काव्य मीमान्सा जैसे उत्कृष्ट ग्रन्थों के प्रणेता उसकी सभा को सुशोभित करते थे । इसी वंश के राजा महिपाल प्रथम लगभग 912-943 ई. ने प्रतिहार वश की सीमाएँ केरल, कुन्तल, और कलिंग, तक पहुंचा दी । इस वंश के जिन राजाओं ने त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लिया उनमें वत्सराज, नागभट्ट द्वितीय, रामभट्ट, मिहिर भोज, महेन्द्रपाल प्रमुख थे । भारतीय इतिहास में प्रतिहारों का महत्त्व इस बात में हैं कि पालों और राष्ट्रकूटों से संघर्ष करते हुए भी उन्होनें सम्पूर्ण उत्तरभारत को लगभग 150 वर्षों तक एक राजनीतिक और प्रशासनिक सूत्र में बांधे रखा |

डॉ. विशुद्धानन्द पाठक का मत है कि पाल और राष्ट्रकूट भारत वर्ष के हृदय स्थल और सदा से भारतीय राजनीति के केन्द्र (उत्तरी और मध्य भारत) को अधिकृत करने की त्रिपक्षीय लड़ाई प्रतिहारों से हार गये अपितु अपने-अपने क्षेत्रों में भी उनकी सत्ता का उतना दीर्धकालीन दबदबा नही रहा जितना सारे उत्तर भारत में गुर्जर प्रतिहारों का था ।

अपने चर्मोत्कर्ष के दिनों में पूर्व में उत्तरीबंगाल से सिन्धु सौराष्ट्र गुजरात तक, उत्तर में हिमालय की निचली पहाड़ियों से लेकर दक्षिण में सारे बुन्देलखण्ड और मालवा तक तथा पूर्वीपंजाब और दिल्ली होते हुए सारे राजस्थान तक प्रतिहार सम्राटों की राजाज्ञाएं समान रूप से स्वीकृत थी ।

समय और सीमाओं की दृष्टि से प्रतिहार साम्राज्य भारतीय इतिहास के प्रमुख साम्राज्यों में गिना जाना चाहिये, किन्तु प्रतिहारों को एक साथ जिस दीर्घ समयावधि तक विभिन्न दिशाओं पूर्व में पालों, पश्चिम में अरबों और दक्षिण में राष्ट्रकूटों जैसे अपने समान ही शक्तिशाली राजवंशों का मुकाबला करना पड़ा वैसी समस्या न मौर्य, गुप्तों की थी और न ही मुगलों की ।

 
अरब इतिहासकार सुलेमान, अबूजैद, अलमसूदी ओर अलगर्दीजी उनकी देश भक्ति, वीरता, असीम सैन्यशक्ति तथा अरबों को पीछे धकेलने के लिए सदैव उनके तैयार रहने पर अपने विवरण में प्रतिहारों के प्रति प्रशंसात्मक टिप्पणी करते है । गुर्जर प्रतिहारों के समान ही त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लेने वाली बंगाल की पालवंशीय राजशक्ति को भी वहा की अराजकता समाप्त करने के लिए जाना जाता है । हर्ष के समकालीन राजा शंशाक की मृत्यु के बाद लगभग एक शताब्दि तक बंगला में उत्पन्न स्थिति को अभिलेखों में ‘मत्स्य न्याय’ की संज्ञा दी गयी है । अन्त में पीड़ित जनता (प्रकृति) ने वप्यट के पुत्र गोपाल को अपना राजा चुना (खसिमपुरताम्रपट्टलेख) | | गोपाल ने मगध और समुद्र तक के देशों को जीता । कहां जाता है कि उसने 45 वर्ष तक राज्य किया और बौद्ध शिक्षा के एक प्रमुख केन्द्र ओदन्तपुरी की स्थापना की । 780 ई. के आस-पास गोपाल का पुत्र धर्मपाल (लगभग 770-810 ई) गद्दी पर बैठा । धर्मपाल की दिग्विजय की जानकारी खादिमपुर अभिलेख (एपिग्राफिया इंडिका जिल्द-4, पृ. 248) और नारायण पाल के भागलपुर अभिलेख (इंडियन एंटिक्वटी, जिल्द- 15, पृ. 305, इंडियन एंटिक्वरी जिल्द-20, पृ. 187) से होती है । धर्मपाल ने कन्नौज में चक्रायुद्ध को गद्दी पर बैठाया । इसकी जानकारी सजन ताम्रफलिकाभिलेख और मिहिर भोज की ग्वालियर प्रशस्ति (एपिग्राफिया इंडिका जिल्द- 18, पृ: 233,108) से होती है |

धर्मपाल के सैनिकों के सम्बन्ध में मुगेर अभिलेख (इंडियन एंटिक्वरी जिल्द-21, पृ: 255) और उत्तरी बंगाल पर प्रत्यक्ष अधिकार का उल्लेख तारानाथ और नेपाल से प्राप्त युद्ध हस्तलिपियों से होता है । धर्मपाल के आक्रमणकारी कदमों की चर्चा उदयसुन्दरी कथा (पृ:-4) से होती है। हेमचन्द्र राय जैसे आधुनिक लेख को ने धर्मपाल के साम्राज्य विस्तार पर प्रकाश डाला है । 810-850 ई. के मध्य धर्मपाल के पुत्र देवपाल ने 35 वर्षों तक राज्य किया | हिमालय, विन्ध्य और रेवा तक के प्रदेश पर उसने विजय प्राप्त की | बादाल के अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने गुर्जर, राष्ट्रकूट, हूण और उत्कल (उत्कीलितोत्कलकुलम्) के दर्प का दमन किया । एक अन्य अभिलेख में उसकी कम्बोजविजय का भी उल्लेख है | वह नालंदा महाविहार का संरक्षक था |

इसकी विजय की चर्चा नारायण पाल के भागलपुर अभिलेख में भी की गई है । पालवंश के जिन राजाओं ने त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लिया उनमें धर्मपाल, देवपाल, विग्रहपाल, नारायणपाल उल्लेखनीय है ।


 
राज्यपाल (लगभग 915-940 ई.) गोपाल द्वितीय (940-960) तथा विग्रहपाल द्वितीय (900-988) के शासन के उपरान्त महीपाल प्रथम (988- 1038 ई.) ने शासन सूत्र संभाला |
  • महीपाल को आक्रमण का सामना करना पड़ा |
  • आठवीं शताब्दि के अन्तिम भाग में दक्षिण में राजनीतिक प्रभुता चालुक्यों के हाथों से निकल कर राष्ट्रकूटों के हाथ में चली गई ।
  • राष्ट्रकूटों ने अपने साम्राज्य का काफी विस्तार किया।
  • राष्ट्रकूटों की मूल उत्पत्ति तथा उनके मूल निवास स्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है । कुछ विद्वानों का अनुमान है कि राष्ट्रकूट राजस्थान के राठोरो के वंशज थे ।
लेकिन यह मत मान्य नहीं है, क्योंकि दक्षिण के राष्ट्रकूटों के प्राचीनतर अस्तित्व का प्रमाण मिलता है ।

राष्ट्रकूटों को तेलगू उत्पत्ति का भी बताया जाता है । इस मत का उल्लेख अशोक के अभिलेख में किया गया है । ये लोग सम्भवत: कर्णाटक प्रदेश के रहने वाले थे । राष्ट्रकूटों का मूलस्थान लट्टलूट (बीदर) था । लट्टलूट प्रदेश बीदर जिले के कन्नड़ भाषाभाषी प्रदेश को व्यक्त करता है । राष्ट्रकूटों की भाषा कन्नड़ थी और उन्होंने इसे राजकीय संरक्षण प्रदान किया था |

नन्नराज वंश का पहला व्यक्ति था जिसने सामन्त पद पाया था अत: नन्नराज को ही राष्ट्रकूट वंश का. पहला संस्थापक माना जाता है | उसने बाज पक्षी को अपने वंश का राजचिन्ह बनाया । उसके वंशजो ने भी यहीं राजचिन्ह बनाएं रखा । नन्नराज का शासनकाल लगभग 630 650 के बीच में रखा जा सकता है | नन्नजाज के बाद उसका बेटा या भतीजा दन्तिदुर्ग गद्दी पर बैठा दन्तिदुर्ग का शासनकाल 745 ई. से 756 ई. तक है । वह पराक्रमी, दूरदर्शी तथा कूटनीतिक नरेश था । उसने कांची कौशल, कंलिग मालव लाट (दक्षिण गुजरात) और श्रीकौल (कर्नूल जिले) के राजाओं को पराजित किया । संजन ताम्रपत्रों के अनुसार उज्जैन में दन्तिदुर्ग ने हिरण्यगर्भ दान किया था | दशावतार गुहालेख में कहा गया है कि शर्व नामक नरेश ने लाट मालव, बादामी, सिंधु आदि प्रदेशों पर विजय प्राप्त की थी,डॉ. अल्तेकर ने शर्व का समीकरण दन्तिदुर्ग से किया है ।

चितलदुर्ग-अभिलेख से ज्ञात होता है कि दन्तिदुर्ग की कोई सन्तान नहीं थी, उसका छोटा चाचा कन्नर अथवा कृष्ण प्रथम राजा हुआ | ताले गांव के अभिलेख से ज्ञात होता है कि कृष्ण प्रथम ने मैसूर के गंग नरेश श्रीपुरूष को पराजित किया था | कृष्ण प्रथम ने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण करते हुए अपने पूर्वजों से प्राप्त साम्राज्य में तीन गुनी वृद्धिकर दी । उसने एलोरा मे पर्वत कटवाकर कैलाश मंदिर का निर्माण करवाया था । डॉ. स्मिथ ने मन्दिर की प्रशंसा में लिखा है कि “यह भारत में सबसे अधिक आश्चर्यजनक वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है । सम्भवत: 773 ई. में उसका देहान्त हो गया ।

कृष्ण प्रथम के निधनोपरान्त उसका ज्येष्ठ अस्मज गोविन्द द्वितीय गद्दी पर बैठा । राष्ट्रकूट अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गोविन्द द्वितीय एक विलासी राजा था उसने नासिक खानदेश का शासक नियुक्त किया था । लगभग 780 ई. में उसने गोविनद के विरूद्ध विद्रोह का झण्डा खडा कर दिया और उसके स्थान पर गद्दी पर बैठ गया ।

ध्रुव ने सन् 779-794 ई. तक राज्य किया । उसने गंगनरेश शिवभार द्वितीय को पराजित कर उसके राज्य पर अधिकार जमा लिया । ध्रुव ने कांची नरेश दन्तिवर्मन पर भी आक्रमण किया और उसे युद्ध में पराजित किया दन्तिवर्मन ने बहुत से हाथी भेंट कर अपनी जान छुड़ाई | ध्रुव के शासनकाल में राष्ट्रकूटों की शक्ति बहुत बढ गयी थी । अभिलेखों में वर्णित है कि हिमालय से कन्याकुमारी तक उसके अधिकार को चुनाती देने वाला कोई न बचा था । ध्रुव ने अपने बड़े बेटे स्तम्भ को गंगावाडी का उपराजा बनाया । छोटे बेटे गोविन्द तृतीय को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया ।

राष्ट्रकूटवंश दन्ति दुर्ग 758-738)ई (. कृष्ण प्रथम 772-758)ई(. गोविन्द दवितीय (.ई 779-772) ध्रुव

समकालीन शासकों की संक्षिप्त सारणी गुर्जरप्रतिहार वंश पाल वंश
नागभट्ट प्रथम
गोपाल 776-756)ई(. (75-0770 ई. कक्कुक देवराज 776-756)ई(.
वत्सराज धर्मपाल (776-808 ई(. (77-081(.ई 0
नागभट्ट द्वितीय (808-833 ई.
राम भद्र देवपाल (833-836 ई(.(81-085(.ई 0
मिहिर भोज विग्रहपाल (836-885 ई(. (85-0854 ई(.
महेन्द्र पाल प्रथम नारायण पाल )885-908 ई. 908-854)ई(.
भोज द्वितीय (908-912 ई(.
महीपाल प्रथम राज्यपाल )912-942 ई(. (908-932ई.)
विनायकपाल प्रथम गोपाल द्वितीय )942-945 ई(. (932-949 ई(.
महेन्द्रपाल द्वितीय )945-948 ई.)
देवपाल 949-948)ई(.
विनायकपाल द्वितीय महिपाल विग्रह पाल द्वितीय द्वितीय 975-949)ई(. 794-779)ई.(
गोविन्द तृतीय 814-794)ई.
अमोघवर्ष प्रथम 878-814)ई(. ‘
कृष्ण द्वितीय 914-878)ई(.
इन्द्र तृतीय 922-914)ई(.
अमोघवर्ष द्वितीय 923-922)ई(.
गोविन्द चतुर्थ936-923)ई(.
अमोघवर्ष तृतीय (.ई 939-936)
कृष्ण तृतीय 968-939)ई(.
विजयपाल (954-96(.ई 0
राज्यपाल (99 -01018 ई


15.6 त्रिपक्षीय संघर्ष के कारण
लगभग पीने दो सौ वर्ष तक चलने वाले त्रिपक्षीय संघर्ष के कारणों की जानकारी करना भी आवश्यक है । अत: यहां त्रिपक्षीय संघर्ष के कारण प्रस्तुत किये जा रहे हैं –

15.6.1 कान्यकुब्ज (कन्नौज) का महत्व
__ पाटिलपुत्र, उज्जयिनी के बाद गुप्तोत्तार काल में कान्यकुब्ज को विशिष्ट महत्व प्राप्त हो गया था । तत्कालीन भारत वर्ष की राजनीति में हर्षवर्धन के राजनीतिक महत्त्व के चलते कन्नौज को वह स्थान प्राप्त हो गया था जो इससे पहले पाटिल पुत्र तथा उज्जैयिनी को प्राप्त था | कन्नौज अब केवल राजनीतिक केन्द्र ही नहीं रहा अपितु आर्थिक एवं सामरिक दृष्टि से भी इसका महत्त्व स्थापित हो चुका था । एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र के रूप में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित होने के साथ-साथ कन्नौज को सांस्कृतिक उत्कर्ष भी प्राप्त हो चुका था । कन्नौज की महत्ता का वर्णन तत्कालीन साहित्य एवं अभिलेखों में प्रभूत रूप से मिलता है । अत: यह नवीन शक्तियां कन्नौज पर अपना अधिकार स्थापित करने के लिये प्रयासरत थी । फलत: इन तीनों में घमासान होना अवश्यम्भावी हो गया था |

15.6.2 आयुध वंश की दुर्बल राजनीतिक स्थिति
कन्नौजपति हर्षवर्धन का साम्राज्य काफी विस्तृत था इसके बाद यशोवर्मा ने भी राजनीतिक उत्कर्ष की अलख जगाये रखी, किन्तु उसके पश्चात् आयुध शासक साम्राज्य की सीमाएं सुरक्षित नहीं रख पाये । इनकी दुर्बलता ने पालो, प्रतिहारों, और राष्ट्रकूटों को कन्नौज पर अधिकार जमाने के लिये आकर्षित किया । इस प्रकार त्रिपक्षीय संघर्ष के कारण के रूप में आयुध वंश की दुर्बलता को एक प्रमुख कारण के रूप में देखा जा सकता है ।

3.15.6.3 गंगा-यमुना दोआब क्षेत्र की समृद्धता का आकर्षण
दोआब की उपजाऊ भूमि ‘तथा जीवनोपयोगी जलवायु ने नव स्थापित राजवंशो को आकर्षित करने में एक महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में भूमिका निभाई । इस मैदानी भू-भाग पर जिस राज वंश का राज्य होता था वह भू-राजस्व आदि की प्राप्ति से शीघ्र ही आर्थिक समृद्धता प्राप्त करता था । अत: इस विशाल, उपजाऊ भू-भाग पर अधिकार करने के लिये शासक सदैव प्रयासरत रहे हैं । कालान्तर में कन्नौज सहित गंगा-यमुना दोआब की प्रशंसा अरब लेखक भी करते रहे हैं ।

15.6.4 शक्ति संतुलन तथा सामाज्य की सुरक्षा हेतु
तत्कालीन उत्तर भारत की राजनीति में कोई एक राजवंश शक्तिशाली न हो जाए इसकी चिंता दक्कन के पठार के राजाओं सहित अन्य सभी राजवंशो को रहती थी । यद्यपि राष्ट्रकूट वंश उत्तर भारत से काफी दूर था, किन्तु अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखने के लिये शायद इसके राजा अन्य राज्यों को अधिक शक्तिशाली नहीं होने देना चाहते थे। इसलिये त्रिपक्षीय संघर्ष लम्बे समय तक गतिमान रहा ।

15.6.5 शासकों की सामाज्यवादी प्रवृतियाँ
पूर्वमध्यकालीन भारत में क्षेत्रीय राजनीतिक शक्तियां सदैव साम्राज्यवाद में विश्वास करती हुई प्रतीत होती हैं । इनके शासकों में यह सामान्य प्रवृत्त देखी जाती है कि वे एक वृहत से बृहत्तर साम्राज्य के स्वामी बनना चाहते थे। इसी कारण से इन राजवंशो मे आपस में संघर्ष हुआ गुर्जर प्रतिहार एवं पालवंश के शासकों में मगध की राजधानी पाटिल पुत्र पर अधिकार करने की कोशिश मे उनकी यह प्रवृत्ति साफ झलकती है |

त्रिपक्षीय संघर्ष की एक विशेषता यह भी है कि कभी भी पूरे संघर्षकाल में तीनों शक्तियां एक साथ युद्धरत नहीं हुई। अध्ययन की सुविधा के लिये त्रिपक्षीय संघर्ष को विभिन्न चरणों में प्रस्तुत किया जा रहा है –

15.7 त्रिपक्षीय संघर्ष प्रथम चरण
गुर्जरप्रतिहार नरेश वत्सराज एवं पालनरेश धर्म पाल दोनों ही कन्नौज पर अधिकार जमाना चाहते थे । अत: दोनों शक्तिशाली वंशों के इन राजाओं के बीच संघर्ष होना निश्चित हो गया था । राष्ट्रकूट वणि डिण्डोरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि प्रतिहार राजा वत्सराज ने पाल राजा धर्मपाल को सहजता में ही पराजित कर उसके धवल राजछत्र को छीनकर यश प्राप्त किया –

हेलास्वीकृत – गौड़राज्य – कमला – मत्तं प्रवेश्याचिराद दुर्मार्ग मरुमध्यमप्रतिव (ब) लैर त्र यो वत्सराजं व (ब) लै खरू, | गौडीयं शरदिन्दु-पाद-धवलं च्छ (छ) त्रद्धय केवल ख -, I तस्मान्नआहत तत्व शोऽपि ककुभ प्रान्ते स्थितं तत्क्षणात् । ।

-वणि डिण्डोरी अभिलेख

पराजित धर्मपाल ने राष्ट्रकूट राजा ध्रुव से सहायता मांगी, क्योंकि धर्मपाल की रानी रण्णा देवी राष्ट्रकूट वंश की बेटी थी । अत: उत्तर भारत की जीत का आकांक्षी ध्रुव इसे उचित अवसर मानकर युद्ध के लिये तैयार हो गया अमोघवर्ष प्रथम के सजन ताम्रपत्र लेख से ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने वत्सराज को हराकर राजछत्र छीन लिया । इस प्रकार प्रतिहार राजा वत्सराज को युद्ध में हारकर कन्नौज छोड़ना पड़ा । इतना ही नहीं उसे अपनी प्राण रक्षा के लिये मस्थल की ओर भागना भी पड़ा | किन्तु राष्ट्रकूट राजा ध्रुव भी अपनी कन्नौज विजय को स्थायी नहीं कर सका क्योंकि वह अपने मूल राज्य क्षेत्र (दक्कन) से काफी दूर था । इस भौगोलिक दूरी के चलते जहां एक ओर ध्रुव कन्नौज विजय को स्थायी नही कर पा रहा था, वहीं दूसरी ओर उसके गृह राज्य में आन्तरिक कलह उत्पन्न हो रहा था । क्योंकि वह वहां पर नहीं था । इन परिस्थितियों में ध्रुव को अपने राज्य में शान्ति स्थापित करने के लिये वापस जाना पड़ा इस प्रकार त्रिपक्षीय संघर्ष का प्रथम चरण अल्पकालिक था ।

15.8 त्रिपक्षीय संघर्ष : दवितीय चरण
राष्ट्रकूट शासक ध्रुव ने प्रतिहार नरेश वत्सराज को पराजित करने के पश्चात् पूर्व की और प्रस्थान किया । अमोघवर्ष प्रथम के सजन ताम्रपत्र लेख से ज्ञात होता है कि पूर्व में पाल नरेश धर्मपाल पराजित हुआ | यह युद्ध गंगा एवं यमुना के दोआब में हुआ था गङ्गायमुनयो मध्ये राज्ञो गौडस्य नश्यत: । लक्ष्मीलीलारविन्दनिश्वेतच्छत्राणि योSहरत् । ।

-अमोघवर्ष प्रथम का सजन तामपत्र लेख

सूरत अभिलेख से भी पता चलता है कि ध्रुव की सेना ने गंगा नदी के प्रवाह को भी अवरूद्ध कर दिया था (गांगौ-घसन्तति-निरोधविवध्यकीर्तिः) बड़ौदा अभिलेख से भी ज्ञात होता है कि गंगा-यमुना के दोआव पर राष्ट्रकूटों का अधिकार हो गया था –

“गो गंगायमुने तरंङग्सुभगे गृहणन्यरेम्य: समम् ।

साक्षाच्छिन्न निमेन चोत्तम पदं प्राप्तवानैश्वरम् । ।

-बड़ौदा अभिलेख


राष्ट्रकूट शासक ध्रुव ने प्रतिहार एवं पाल नरेशों को पराजित कर उनके प्रदेशों को अपने साम्राज्य में ही नहीं मिलाया, बल्कि अपनी राजधानी को वापस लौट गया । सन् 794 ई. में राष्ट्रकूट वंश के प्रतापी शासक ध्रुव की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र गोविन्द तृतीय उत्तराधिकारी हुआ | ध्रुव के अपनी राजधानी लौटते ही कन्नौज में आयुध वंश के इन्द्रायुध और चक्रायुध आपस में सत्ता प्राप्ति के लिये संघर्षरत हो गये । अत: धर्मपाल अपनी सीमा सुरक्षित करने के लिये इसी पश्चिमी प्रदेश पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिये आगे बढ़ा | वास्तव में अब कन्नौज के दोनो आयुध भाई उत्तर भारत की साम्राज्यिक शक्तियों के संघर्ष की कठपुतलियाँ बन गये थे | धर्मपाल के 32वे वर्ष के खालिमपुर अभिलेख से ज्ञात होता है कि कन्नौज नरेश चक्रायुध को पाल नरेश के संरक्षण के कारण स्वामित्व प्राप्त हुआ था । बाद के नारायण पाल के 17वें वर्ष के अभिलेख में धर्मपाल द्वारा चक्रायुध के राज्यारोहण का उल्लेख है । ज्ञात होता है कि उसके राज्याभिषेक के समय अनेक राज्यों के सम्राट सम्मिलित हुए थे । खालिमपुर अभिलेख से ही चक्रायुध की राजनीतिक स्वीकृति का भी ज्ञान होता है । कुरु, यदु, अवन्ति, गंधार, कीर (कांगड़ा घाटी), भोज (बरार क्षेत्र), मल्ल (जयपुर अलवर क्षेत्र), मद (पूर्वी पंजाब) के राजाओं ने चक्रायुध को कन्नौजपति के रूप में स्वीकार किया था । किन्तु यह सब धर्मपाल के प्रभुत्व के कारण ही सम्भव हो सका था | 11 वीं शताब्दी में सोड्ढल द्वारा रचित चम्पूकाव्य उदयसुंदरीकथा में भी धर्मपाल को उत्तरापथस्वामी कहा गया है। कुछ भी हो धर्मपाल के कारण, बंगाल जो एक शताब्दि से भारतीय राजनीति में अनुपस्थित सा था वह अब एक महत्वपूर्ण कारक बन गया था । इस द्वितीय चरण में प्रतिहार नरेश की भूमिका बहुत स्पष्ट नहीं है ।

15.9 त्रिपक्षीय संघर्ष : तृतीय चरण
राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय भी अपने पिता ध्रुव की भांति महत्वाकांक्षी था । वह भी उत्तर भारत की राजनीति में भाग लेने को उत्सुक था, क्योंकि वह पिता की ही भांति प्रतिहार वंश के उत्कर्ष को समाप्त करना चाहता था । राष्ट्रकूट राज्य की उत्तरी सीमा पर स्थित विदर्भ, कलिंग, आंध्र, सिन्धु आदि राज्यों ने प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीय के साथ मिलकर एक संघ बनाया था जिससे उसे इनके आक्रमण का भय भी था । अत: अपने इन्हीं उद्देश्य की पूर्ति के लिये गोविन्द तृतीय ने अपने भाई इन्द्र को प्रतिहारो के मूल प्रदेश पर आक्रमण करने के लिये भेजा | वास्तव में उत्तरीभारत में राजनीतिक गठबंधन काफी अस्थायी और परिवर्तनशील थे । अत: किसी एक शक्ति के लिये अधिक समय तक अपनी प्रभुसत्ता बनाये रखना आसान न था |

ग्वालियर प्रशस्ति के अनुसार नागभट्ट ने अपने संघ में शामिल राजाओं को पराजित भी किया था | नागभट्ट द्वितीय के सामन्त बाउक के जोधपुर अभिलेख से संकेत मिलता है कि उसने गौड़राज धर्मपाल को पराजित किया था । किन्तु कन्नौज की गद्दी पर चक्रायुध की स्थापना प्रतिहार नरेश नागभट्ट के लिये एक चुनौती बन गई थी । अत: उसने चक्रायुध को हटाकर इन्द्रायुध को कन्नौज का राजा बनाया । महेन्द्र पाल के दो अभिलेखों से ज्ञात होता है कि जब नागभट्ट द्वितीय उत्तर भारत में अपनी विजय पताका फहरा रहा था तभी उसे वही झटका लगा जो उसके पूर्वज वत्सराज को लगा था । जिस प्रकार वत्सराज को धर्मपाल के विरूद्ध अपनी शानदार सफलता के बावजूद राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव के आगमन के कारण मारवाड़ मरूथल प्रदेश में भागना पड़ा था ठीक उसी प्रकार गंगा घाटी में नागभट्ट द्वितीय की विजयें अधिक स्थाई साबित न हो सकी । वह गोविन्द तृतीय से लगभग सन् 810 ई. के आस-पास परास्त हुआ – ‘स नागभट्ट चन्द्रगुप्तनुपर्योशौर्य रणे व्वहार्यमपहार्य!……. …… ……. | -अमोघवर्ष का संजन तामपत्र लेख

पाल नरेश धर्मपाल इस युद्ध से बहुत प्रसन्न हुआ क्योंकि इसमें प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीय की पराजय हुई थी। राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय ने उत्तरी भारत के विजित राज्यों को अपने साम्राज्य में नहीं मिलाया, प्रत्युत वापिस लौट गया । गोविन्द तृतीय लौटने के पश्चात् भी प्रतिहारनरेश नागभट्ट द्वितीय की शक्ति में कोई कमी नहीं हुई थी | कदाचित् राष्ट्रकूट शासक के स्वदेश लौटने के पश्चात् नागभट्ट द्वितीय ने पुन: कन्नौज पर अपना अधिकार कर लिया ।

15.10 त्रिपक्षीय संघर्ष : चतुर्थ चरण
त्रिपक्षीय संघर्ष का यह चतुर्थ चरण राष्ट्रकूट राजा गोविन्द तृतीय के आक्रमण के काल एवं कारणों के कारण विवादास्पद माना जाता है । कुछ इतिहासकारों का मानना है कि नागभट्ट द्वितीय ने धर्मपाल द्वारा संरक्षित कन्नौज के साथ-साथ चक्रायुध को पराजित किया और उसे सिंहासन से हटाकर अपने समर्थक को शासक बनाया तत्पश्चात् धर्मपाल को भी परास्त किया । इसकी चर्चा तृतीय चरण के अन्तर्गत कर दी गई है । इन दोनों शासकों के परास्त होने के बाद इनके अनुरोध पर राष्ट्रकूट राजा गोविन्द तृतीय उत्तर भारत की ओर आया तथा उसने नागभट्ट को पराजित किया । दूसरी और कुछ अन्य इतिहासकार कहते है कि राष्ट्रकूट नरेश नागभट्ट की सफलताओं से असुरक्षित अनुभव कर रहा था । क्योंकि राष्ट्रकूट अभिलेखों से ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूट साम्राज्य के उत्तर पश्चिमी क्षेत्रों पर नागभट्ट की नजर थी और इस क्षेत्र पर नागभट्ट ने अधिकार करने का भी प्रयास किया था । इस प्रकार इस चरण में नागभट्ट द्वितीय के विरूद्ध राष्ट्रकूट गोविन्द तृतीय के अभियान की प्रकृति का अध्ययन महत्वपूर्ण है ।

15.11 त्रिपक्षीय संघर्ष : पंचम चरण
गुर्जर प्रतिहार वंश में नागभट्ट द्वितीय के पश्चात् रामभद्र एक अत्यन्त कमजोर शासक था | मिहिर भोज के वराह तथा दौलतपुर अभिलेखों में ऐसे उल्लेख हैं जिनसे रामभद्र के काल की प्रशासनिक निर्बलता का संकेत मिलता है । उदाहरणार्थ, कुछ भूमिदानों का पुन: अनुमोदन न करना । उधर राष्ट्रकूट राज्य मे अल्पवयस्क अमोधवर्ष भी कठिनाइयों से घिरा पड़ा था । चालुक्य शक्ति का उदय हो रहा था यद्यपि अमोधवर्ष ने चालुक्यों को परास्त कर दिया था | किन्तु सामन्त स्वतंत्रता के लिये निरन्तर प्रयास कर रहे थे । अमोधवर्ष की प्रकृति यह थी कि वह धार्मिक अभिरूचि वाला व्यक्ति था जिसमें वैराग्य की भावना भी विद्यमान थी । यद्यपि उसने “वीरनारायण” की उपाधि धारण की हुई थी | बादाल स्तम्भ अभिलेख (जो बिना तिथि का है) के अनुसार उपर्युक्त दोनों राजवंशों के शासकों को निर्बल एवं कठिनाइयों में भरा पाकर पालवंश के शासक धर्मपाल के उत्तराधिकारी देवपाल ने उत्कलों के वंश को समाप्त कर दिया, हूणों का दर्प भंग किया तथा द्रविड़ों और गुर्जरों के अभिमान को परास्त कर दिया (खर्बीकृत-द्रविड़-गुर्जर नाथदर्पम्) यहां द्रविड़ व गुर्जर से आशय राष्ट्रकूट एवं गुर्जर प्रतिहार राजाओं से है । स्पष्ट है देवपाल ने राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष तथा गुर्जर प्रतिहार नरेश रामभद्र को परास्त करने में सफलता प्राप्त की।

देवपाल ने लगभग 40 वर्षों तक राज्य किया । उसके समय में पालवंश की कीर्ति चर्मोत्कर्ष पर थी, उसकी राजनीतिक सत्ता सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर आसाम से लेकर कश्मीर की सीमा तक, सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्र तक और हिमालय से बिन्ध्यक्षेत्र तक फैली हुई थी । डॉ. त्रिपाठी का कथन है कि प्रतिहार नरेश मिहिरभोज भी पाल नरेश देवपाल से पराजित हुआ | भोज के ग्वालियर लेख से भी सकेत मिलता है उपरोधैकसंख्द्धबिन्ध्यवृद्धेरगस्त्यत: ।

आक्रम्य भूभृतां भोक्ता यः प्रभुमोर्ज इत्यमात । । डॉ. रमेश चन्द मजूमदार का विचार है कि प्रतिहार नरेश ।मिहिर भोज अपनी सफलताओं के बावजूद भी देवपाल से पराजित हुआ तथा अपने परिवार में यश को तब तक सुरक्षित न रख सका, जब तक कि पाल नरेश जीवित रहा । इस प्रकार पालनरेश देवपाल ने तीन पीढियों के प्रतिहार शासकों से सफलतापूर्वक युद्ध किया और उसने उत्तरी भारत में पाल वंश की महत्ता को कायम रखा ।

15.12 त्रिपक्षीय संघर्ष. षष्ठ चरण
बंगाल के पालवंश में देवपाल का उत्तराधिकारी विग्रहपाल (शूरपाल) व इसके पश्चात् नारायण पाल शासक बना । किन्तु यह दोनों देवपाल की भांति योग्य एवं शक्तिशाली साबित नहीं हुए । इसी तरह राष्ट्रकूट वंश में बालक अमोघवर्ष शासक बना किन्तु वह अपने राज्य के आन्तरिक विद्रोहों में ही फसा रहा । सिरूर अभिलेख के अनुसार अंग, बंग, मगध और बैंगी के राजा, राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष के अधीन थे । इस आधार पर डॉ.आर.सी. मजूमदार का विचार है कि अमोघवर्ष ने पाल नरेश नारायणपाल को पराजित किया । इसके विपरीत पाल अभिलेखों में दावा किया गया है कि नारायणपाल ने किसी द्रविड़ शासक को हराया । डॉ.ए.एस. अल्तेकर के अनुसार यह द्रविड़ शासक अमोघवर्ष था । इस प्रकार परस्पर विरोधी दावों से यहीं निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राष्ट्रकूट एव पाल वंश के मध्य छोटी-छोटी झड़पें होती रही । किन्तु उत्तर भारतीय राजनीति में राष्ट्रकूट इस समय दखल नहीं दे पाए । इसके बाद राष्ट्रकूटों की बाग-डोर कृष्ण द्वितीय के हाथ आई । वर्तुन संग्रहालय के एक लेख से विदित होता है कि राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय के सामन्त कृष्णराज को प्रतिहार नरेश मिहिरभोज ने खदेड दिया था । परन्तु कृष्णराज के बागुम्रा अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने प्रतिहार नरेश के उज्जयिनी प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया था । इस प्रकार कतिपय अभिलेखों में राष्ट्रकूटों की विजय का एवं कुछ में गुर्जर प्रतिहारों की जीत का वर्णन मिलता है किन्तु इतना सुनिश्चित है कि प्रतिहार नरेश मिहिर भोज के शासनकाल में राष्ट्रकूट किसी भी प्रकार की हानि न पहुंचा सके और मिहिरभोज के समय में भी कन्नौज उसके साम्राज्यकी राजधानी बनी रही । इसी क्रम में भवनगर अभिलेख का कथन है कि मिहिरभोज ने नर्मदा नदी को पार करके कृष्णराज को पराजित किया । यह कृष्णराज ही कृष्ण द्वितीय था । जबकि बागुम्रा अभिलेख इसके विपरीत जानकारी देता है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इनमें निर्णायक युद्ध नहीं हुआ।

___गुर्जर-प्रतिहार नरेश मिहिरभोज की मृत्यु के बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम उत्तराधिकारी हुआ । महेन्द्रपाल प्रथम के बिहार व बंगाल लेख से ज्ञात होता है कि प्रतिहार नरेश महेन्द्रपाल प्रथम ने पालवंश के नारायण पाल से मगध एव उत्तरी बंगाल छीनकर अपने अधिकार में कर लिया था | डॉ. रमेश चन्द्र मजूमदार का भी कथन है कि प्रतिहार नरेश महेन्द्रपाल के साम्राज्य को उग्रता के साथ नष्ट कर दिया । परन्तु नारायणपाल के 906 ई. के उदयपुर लेख से विदित होता है कि नारायणपाल ने मगध राज्य पर पुन: अधिकार प्राप्त कर लिया था ।

पाल नरेश नारायणपाल के बाद इस वंश के उत्कर्ष काल का अन्त हो जाता है । इसके बाद किसी भी अभिलेख में प्रतिहार एव पाल संघर्ष का उल्लेख नहीं मिलता है ।

गुर्जर प्रतिहार नरेश महेन्द्रपाल प्रथम के पश्चात् भोज द्वितीय एव महिपाल प्रथम कमश: राजा बने । महिपाल प्रथम का शासन काल 912 से 942 तक था । अत: इसके समकालीन राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय (914-922ई.) अमोघवर्ष द्वितीय (922-923 ई.) गोविन्द चतुर्थ (923-936 ई.) अमोघवर्ष तृतीय (936-939 ई.) एवं कृष्ण तृतीय (336-968 ई.) थे ।


खम्भात ताम्रलेख से ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय ने कन्नौज पर आक्रमण कर विजयश्री प्राप्त की, महीपाल प्रथम को अपनी जान बचाकर भागना पड़ा | परन्तु इन्द्र तृतीय के लौट जाने के पश्चात् प्रतिहार नरेश महीपाल ने दोबारा अधिकार प्राप्त कर लिया ।

राष्ट्रकूट वंश के इन्द्र तृतीय के पश्चात् अमोघवर्ष द्वितीय एव गोविन्द चतुर्थ कमश उत्तराधिकारी हुये । ये अयोग्य एवं निर्बल शासक थे । गोविन्द चतुर्थ के पश्चात् अमोघवर्ष तृतीय शासक हुआ | वह एक वृद्ध शासक था । अत: युवराज कृष्ण तृतीय ही उसके शासक का संचालन अप्रत्यक्ष रूप से कर रहा था । युवराज के पद पर रहते हुए कृष्ण तृतीय ने प्रतिहार नरेश महीपाल प्रथम से कालिजर एवं चित्रकूट प्रदेश को छीन लिया था ।

अमोघवर्ष तृतीय की मृत्यु के पश्चात् कृष्ण तृतीय राष्ट्रकूट वश का शासक हुआ | उसने मालवा तथा उज्जैन पर भी अधिकार कर लिया | कृष्ण तृतीय का कोई पुत्र न था अत: 968 ई. के बाद राष्ट्रकूट वश का भी अवसान प्रारम्भ हो गया । अरब यात्री अलमसूदी ने भी बऊर (प्रतिहार राज्य) एवं बल्हर (राष्ट्रकूट राज्य) के बीच घोर शत्रुता का वर्णन किया है ।

15.13 त्रिपक्षीय संघर्ष का अन्त / समापन
त्रिपक्षीय संघर्ष लगभग 175 वर्ष तक चलता रहा राष्ट्रकूट वंश के राजा कृष्ण तृतीय के बाद उसका भाई खोट्टिग शासक बना । जो कि निर्बल शासक था । खोट्टिग का उत्तराधिकारी कर्कराज द्वितीय था, जिसने 972 ई. तक राज्य किया | कर्कराज द्वितीय इस वश का अन्तिम शासक था जो पूर्णत: अयोग्य एवं निर्बल था । इसकी निर्बलता का लाभ उठाकर सामन्त तैल ने कर्क को पराजित कर राष्ट्रकूट वंश का अन्त एव चालुक्य वश का उत्कर्ष किया । सत्यकेतु का कथन है कि ‘कर्क राष्ट्रकूट राजकुल का अन्तिम राजा था, और उसके साथ इस वंश के शासन का अन्त हो गया । अब दक्षिणापथ पर एक बार फिर चालुक्यों का शासन स्थापित हुआ । राष्ट्रकूटों से पहले इस क्षेत्र पर चालुक्यों का ही आधिपत्य था | उन्हीं को परास्त कर राष्ट्रकूटों ने अपनी सत्ता स्थापित की थी । पर इससे चालुक्यों का मूलोच्छेद नहीं हो सका था । अपने अपकर्ष काल में भी कतिपय चालुक्य राजा राष्ट्रकूटों के सामन्तों के रूप में शासन करते रहे थे । जिस तैल ने कर्क को परास्त कर चालुक्यों का उत्कर्ष किया, शुरू में उसकी स्थिति मी सामन्तराज की ही थी । तैल ने न केवल राष्ट्रकूटों के प्रभुत्व से अपने को स्वतंत्र कर लिया, अपितु दक्षिणपथ के बड़े भू-भाग को अपने शासन में ले आने में भी सफलता प्राप्त की ।

गुर्जर प्रतिहार नरेश महिपाल प्रथम (912-942 ई.) की मृत्यु के पश्चात् शक्तिशाली राजा के अभाव में इस वंश का पतन आरम्भ हो गया । आपसी संघर्ष ने इस वंश की नींव को जर्जर कर दिया । इस वंश का अन्तिम नरेश राज्यपाल (990- 1018 ई. तक) था । इस समय गुर्जर प्रतिहार पर चारों ओर से संकट के बादल मंडरा रहे थे । 20 दिसम्बर,, 1018 ई. को कन्नौज पर महमूद गजनवी ने आक्रमण कर दिया । जिससे घबराकर राज्य पाल भाग गया ।

इसी तरह पाल वंश में भी विग्रह पाल द्वितीय के पश्चात् इस वंश का कमश: पतन प्रारम्भ हो जाता है । इस वंशका अन्तिम शासक मदनपाल (1106- 1125 ई.) था जो बहुत ही कमजोर था । आन्तरिक विघटन और विदेशी आक्रमणों के कारण पाल राज्य धराशायी हुआ | ‘मदनपाल के शासन के कम से कम आठवें वर्ष तक उत्तरी बंगाल का सम्पूर्ण भाग यदि नहीं, तो अधिकांश भाग अवश्य था । जयनगर प्रतिमा उत्कीर्ण लेख से स्पष्ट होता है कि उसके शासन के चौदहवें वर्ष में मुगेर जनपद पर उसका राज्य था । इस प्रकार आन्तरिक विघटन और विदेशी आक्रमणों के कारण पाल वंश समाप्त हो गया । लाट का सामन्त विजयसेन पाल वंश की निर्बलताकालाभ उठाकर स्वतंत्र हो गया और उसने एक नवीन वंश की नीव रखी, जिसे भारतीय इतिहास में सेन वंश के नाम से जाना जाता है । इस प्रकार तीनों वंशों के पतन के साथ ही त्रिपक्षीय संघर्ष समाप्त हो गया ।

15.14 त्रिपक्षीय संघर्ष के परिणाम
___इस लम्बे संघर्ष के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सहित सभी क्षेत्रों में गम्भीर परिणाम निकले । युग परिवर्तन की दिशा में इस त्रिपक्षीय संघर्ष ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया । संक्षेप में इस संघर्ष के परिणाम इस प्रकार रहे –


1. कन्नौज का पतन –
वर्धन वंश से लेकर त्रिपक्षीय संघर्ष तक कन्नौज का राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व उत्कर्षाधीन था । यह नगर भारत की राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का महत्वपूर्ण केन्द्र था | किन्तु महमूद गजनबी के आक्रमण के बाद कन्नौज के सातों किले ध्वस्त हो गये । कन्नौज के राजकीय कोष एव भव्य मन्दिरों को लूट लिया गया । साथ ही साथ राज्यपाल की इस कायरता से क्रोधित होकर चन्देल नरेश विद्याधर ने एक संघ बनाकर कन्नौज पर आक्रमण कर राज्यपाल को मारडाला |

श्रीविद्याधरदेवकार्यनिरत: श्री राज्यपाल हठात्, कण्ठस्थिच्छीनदनेकबाणनिवहैर्हत्वा महत्याहवे |

–दुबकुण्ड अभिलेख इस प्रकार कन्नौज के इतिहास में त्रिपक्षीय संघर्ष ने जिस पतन की शुरूआत की वह अन्तत: गाहड़वाल वंश के पतन के बाद इसके सम्पूर्ण पतन में जा मिली ।

2. देश का सैनिक दृष्टि से कमजोर होना –
त्रिपक्षीय संघर्ष के चलते देश में सैनिक दृष्टि से दुर्बलता आई । जनता मे योद्धाओं की कमी नहीं थी, लेकिन एकता की भावना के अभाव में ये तीनों शक्तियां आपस में ही युद्धरत रहीं, जिससे सैनिक दृष्टि से दुर्बलता आ गई । ऐसी परिस्थिति को ही देखकर अरब देश के शासकों ने आक्रमण करना आरम्भ किया । प्रारम्भ में जब अरबी आक्रमण हुए तब भी क्षेत्रीयशासक एकजुट नही हुए । कालान्तर में महमूद गजनवी ने तो आक्रमणों की एक श्रृंखला ही चलाई। जिसे आर्थिक एवं सैनिक दृष्टि से कमजोर राज्य झेल नहीं पाये |

3. देश का आर्थिक दृष्टि से कमजोर होना –
त्रिपक्षीय दीर्घकालिक संघर्ष ने देश के आर्थिक संसाधनों को इस सीमा तक बर्बाद कर दिया कि आने वाले समय में भी मानव संसाधनों का पुनर्निर्माण सम्भव नहीं हो सका । इसमें संलग्न तीनों राज्य देश के तीन भागों में स्थित थे। अत: अपने-अपने क्षेत्रों में यह विकास की ओर अपना ध्यान केन्द्रित कर सकते थे । लेकिन यह तीनों त्रिपक्षीय युद्ध की भंवर में फंसे रहे | अत: तीनों प्रतिद्वन्द्वी शक्तियों, प्रतिहार, पाल तथा राष्ट्रकूट का लगभग एक साथ पतन होना आश्चर्यजनक नहीं है । प्रो. रोमिला थापर का मत है कि उनकी शक्ति लगभग समान थी और वह मुख्यत: विशाल सुसंगठित सेनाओं पर निर्भर करती थी । इन सेनाओं का खर्च उठाने के लिये राजस्व के स्रोत भी एक जैसे ही थे और उन स्रोतों पर अत्यधिक दबाव का परिणाम भी एक सा ही होना था । कन्नौज पर अधिकार करने के लिये जो निरन्तर संघर्ष हुआ उससे उनका ध्यान अपने सामन्तों पर से हट गया । जिससे एक ओर राज्य के आय के स्रोत कम हुए तथा दूसरी ओर युद्ध में खर्चा अधिक हुआ । परिणामत: युद्ध कालीन अर्थ व्यवस्था ने तीनों राज्यों को आर्थिक रूप से जर्जर कर दिया जो भविष्य में आने वाली शक्तियों का’ प्रतिरोध करने में सक्षम न था ।

4. तीनों राजवंशों का पतन –
तीनों प्रतिद्वन्द्वी शक्तियों का एक साथ पतन हुआ क्योंकि संघर्ष काल में इन्होंने जन कल्याण एवं सार्वजनिक महत्त्व के कार्यों को अनदेखा करते हुए अपनी समूची शक्ति व संसाधनों का संघर्ष में उपयोग किया, जिससे राज्यों का विकास नहीं झा और धीरे-धीरे यह तीनों राजवंश तत्कालीन भारतीय राजनीतिक मानचित्र से विलुप्त होते गये |

5. नये राजवंशो का उदय –
त्रिपक्षीय संघर्ष का समय वह समय है जब भारतीय सामन्तवाद का विकास तेजी से हो रहा था | ऐसे में इन तीनों राज्यों के लिये सामन्त अत्यन्त महत्त्वपूर्ण थे | किन्तु सामन्तों ने इस दीर्घकालीन संघर्ष का फायदा यह उठाया कि वह जो कर (टेक्स) जनता से प्राप्त करते थे उसे उन्होंने अपनी शक्ति के विकास में लगाया । परिणाम स्वरूप देश के विभिन्न भागो में अनेक छोटे-छोटे नये राज्य उदित हुए । इसमें सेन चालुक्य, चन्देल, चाहमान और चोलवंशो को गिनाया जा सकता है ।

6. नयी संस्कृति का उदय –
इस त्रिपक्षीय संघर्ष के चलते योद्धाओं, अस्त्रशस्त्रों का महत्त्व स्थापित हुआ । इसलिये इस काल में शस्त्रोपजीवी जातियों का न सिर्फ प्रादुर्भाव हुआ अपितु उन्हें उत्कर्ष भी मिला | युद्ध कौशल तकनीक के नये आयाम खोजे जाने लगे तथापि समाज में नयी जातियों के उदय से सामाजिक, धार्मिक कानूनों की नई-नई टीकाओं की रचना हुई।

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