भू संतुलन सिद्धांत की विवेचना करें

भू संतुलन सिद्धांत

आइसोस्टेसी (भूसंतुलन) शब्द ग्रीक भाषा के ‘आइसोस्टेसियॉज’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है संतुलन की स्थिति। आप जानते हैं और आपने ऐसा देखा भी होगा कि पर्वतों के बहुत से शिखर होते हैं और उनकी ऊँचाई भी अधिक होती है। इसी तरह से पठार का ऊपरी भाग सपाट होता है और मैदान समतल होते हैं। पठारों की ऊँचाई सामान्य जबकि मैदानों की बहुत कम होती है, इसके विपरीत समुद्र तलों और खाइयों की गहराई बहुत अधिक होती है। इन उच्चावचों की ऊँचाई में बहुत अन्तर होता है। आप यह भी जानते हैं कि पृथ्वी अपनी धुरी पर परिभ्रमण कर रही है और उसने अपने विविध भूलक्षणों में सन्तुलन बना रखा है। अत: हमारी पृथ्वी को समस्थिति की अवस्था में माना जाता है।


भू-संतुलन (lsostasy) का अर्थ है, पृथ्वी के संतुलन बनाए रखने की अवस्था। इस तथ्य का उद्भव सन्‌ 1859 में उत्तरी भारत के त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण के समय हुआ। कल्याना जो हिमालय की तलहटी में स्थित है और कल्याना जो हिमालय की जलहटी में स्थित है और कल्यानपुर की, जो उससे लगभग 375 मील की दूरी पर स्थित है, दूरी त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण से ज्ञात की गई। इस दूरी और खगोलात्मक आधार पर ज्ञात दूरी में पाँच सेकंड (500 फुट) का अंतर पड़ा। यह अंतर हिमालय के आकर्षण के फलस्वरूप था, जिसका प्रभाव साहुल सूत्र (plumb line) पर पड़ा और वह एक ओर को हट गया। प्रैट (Pratt) ने बतलाया कि विशाल हिमालय के प्रभाव से इस दूरी में 15 सेकंड का अंतर पड़ना चाहिए था। अत: यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि किन कारणों से हिमालय पर्वत का पूरा प्रभाव साहुल सूत्र पर नहीं पड़ा। इसश् त्रुटि को इस मान्यता के आधार पर समझाया गया कि पर्वतों के नीचे पृष्ठीय क्षेत्र में संहति की कमी है, अर्थात गहराई तक शिलाओं का धनत्व अपेक्षाकृत कम है।
भूसंतुलनवाद के अनुसार विशाल भू-रचनाएँ, जैसे ऊँची-ऊँची पर्वतमालाएँ, पठार, मैदान आदि, संतुलन की अवस्था में रहते हैं। चिप्पड़ की इन भिन्न भिन्न इकाइयों का भार समुद्र की सतह से नीचे एक समतल पर समान है। इसे भूदाबपूर्ति स्तर (compensation level) कहा जाता है। इस विचारधारा को समझाने के लिये एयरी ने पानी पर तैरते हुए लकड़ी के लट्ठों का उदाहरण रखा। इन लट्ठों की अनुप्रस्थ काट तो समान होनी चाहिए, पर लंबाई भिन्न हो सकती है। पानी में संतुलन की अवस्था में मोटे लट्ठों पतले लट्ठों की अपेक्षा जल से ऊपर अधिक ऊँचाई तक निकले रहते हैं और जल के नीचे भी अधिक गहराई तक डूबे रहते हैं (देखें, चित्र 1.)। पृथ्वी का पृष्ठभाग भी अपने से अधिक धनत्ववाले अध:स्तर पर बर्फ की भाँति तैर रहा है। ऊँची ऊँची पर्वतमालाओं की जड़ें इसमें अधिक गहराई तक चली गई है। आधुनिक गवेषणओं से इस बात की पुष्टि भी हुई है। भूकंप लहरों के अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि पर्वतमालाओं के नीचे सियाल (sial) पदार्थ लगभग 40 किमी0 या उससे भी अधिक गहराई तक विद्यमान है। मैदानों के नीचे की मोटाई 10 से 12 किमी0 तक है और सागरतल के नीचे तो यह पर्त बहुत ही पतली है और कहीं कहीं पर तो विद्यमान भी नहीं है |

प्रैट के अनुसार पृथ्वी की सतह पर की अनियमितताएँ इकाई क्षेत्रों के भिन्न भिन्न धनत्वों के कारण हैं। इसे समझाने के लिये आपने निम्नलिखित उदाहरण दिया। समान अनुप्रस्थ काटवाले, किंतु भिन्न भिन्न धातुओं के, खंडों को पारद से भरे बर्तन में रखने पर सभी खडों के नीचे का भाग एक समतल में रहता है, क्योकि वे सभी समान मात्रा में पारद का विस्थापन करते हैं, पर पारे से ऊपर भिन्न धातुओं के खंडों की ऊँचाई भिन्न भिन्न रहती है (देखें, चित्र 3.)। हाइसकानेन के अनुसार घनत्व ऊँचाई के साथ विचरता है। ऊपर जाने पर वह कम होता है और नीचे जाने पर बढ़ता है। सागरतल पर यह 2.76 ग्राम प्रति धन सेंमी0 और नीन किमी0 ऊँचाई पर 2.70 ग्राम प्रति धन सेंमी0 होता है। किसी भी स्तंभ में हलकी शिलाओं में घनत्व एक किलोमीटर पर 0.004 ग्राम प्रति घन सेंमी0 बढ़ता हैं और भारी शिलाओं में इससे आधी गति से। अत: भूदाबपूर्ति स्तर पर सब जगह समान भार पड़ता है। घनत्व के विचरण पर आधारित यह वाद (ism) भौमिकश् दृष्टि से उपयुक्त है।

एयरी की व्यख्या

भू वैज्ञानिक एअरी ने विभिन्न स्तम्भों जैस पर्वत पठार और मैदान आदि के घनत्व को एक जैसा माना है। अत: उसने विभिन्न मोटाइयों के साथ एक समान घनत्व के विचार को सुझाया। हम जानते हैं कि पृथ्वी की ऊपरी परत हल्के पदार्थों से बनी है। इस परत में सिलिका और एल्मुनियम भारी मात्रा में पाए जाते हैं, इसलिए इसे ‘सियाल’ के नाम से जाना जाता है। यह नीचे की परत से कम घनत्व वाला है। एअरी ने माना कि सियाल से बनी भूपर्पटी सिमा (सिलिका और मैग्नेशियम, नीचे की अधिक धनत्व वाली परत) की परत के ऊपर तैर रही है। भूपर्पटी की परत का घनत्व एक समान है जबकि इसके विभिन्न स्तम्भों की ऊँचाई अलग-अलग है। इसलिए ये स्तम्भ अपनी ऊँचाई के अनुपात में दुर्बलता मण्डल में धंसे हुए हैं। इसी कारणवश इनकी जड़ें विकसित हो गई है अथवा नीचे गहराई में सिमा विस्थापित हो गया है।

इस अवधारणा को सिद्ध करने के लिए, एअरी ने विभिन्न आकारों के लकड़ी के टुकड़े लिए और उन्हें पानी में डुबो दिया। सभी टुकड़े एक जैसे घनत्व के हैं। ये अपने आकार के अनुपात में भिन्न-भिन्न गहराई तक पानी में डूबते हैं। इसी प्रकार से पृथ्वी के धरातल पर अधिक ऊँचाई वाले भूलक्षण उसी अनुपात में अधिक गहराई तक धंसे होते हैं जबकि कम ऊँचाई वाले लक्षणों की जड़ें छोटी होती हैं। यह अधिक गहराई तक धंसी हुई जड़ें ही हैं, जो अधिक ऊँचाई वाले भूभागों को स्थिर रखे हुए हैं। उनका विचार था कि, भू-भाग एक नाव की तरह (मैग्मा वाले दुर्बलता मण्डल) अध: स्तर पर तैर रहे है। इस अवधारणा के अनुसार माउँट एवरेस्ट की जड़ समुद्र स्तर से 70, 784 मीटर नीचे होनी चाहिए (8848 × 8 = 70,784)। एअरी की इसी बात को लेकर आलोचना हुई है कि, जड़ का इतनी गहराई पर रहना संभव नहीं है, क्योंकि इतनी गहराई पर विद्यमान उच्च तापमान जड़ के पदार्थों को पिघला देगा

भू-सन्तुलन : प्रैट के विचार

प्रैट ने विभिन्न ऊँचाईयों के भूभागों को भिन्न-भिन्न घनत्व का माना है। ऊँचे भूभागों का घनत्व कम है, जबकि कम ऊँचाई वाले भूभागों का अधिक। दूसरे शब्दों में ऊँचाई और घनत्व में विपरीत सम्बन्ध है। अगर कोई ऊँचा स्तम्भ है तो उसका घनत्व कम होगा और अगर कोई स्तम्भ छोटा है तो उसका घनत्व अधिक होगा। इसको सही मानते हुए उन्होंने स्वीकार किया कि, विभिन्न ऊँचाईयों के सभी स्तम्भों की क्षतिपूर्ति अध: स्तर की एक निश्चित गहराई पर हो जाती है। इस प्रकार से एक सीमारेखा खींच दी जाती है, जिसके ऊपर विभिन्न ऊँचाईयों का समान दवाब पड़ता है। अत: उसने एअरी के आधार या जड़ अवधारणा को खारिज कर दिया और क्षतिपूरक स्तर की अवधारणा को स्वीकार किया। उसने अपनी अवधारणा को सिद्ध करने के लिए समान भार वाली भिन्न-भिन्न घनत्व की कुछ धातु की छड़ें ली और उन्हें पारे में डाल दिया|

प्राट की व्याख्या

हैफोर्ड और बोवी के विचार है फोर्ड तथा बोवी दोनों प्राट के विचारो से सहमत होते हुए अपना अलग मत प्रतिपादित किया |हैफोर्ड के अनुसार पृथ्वी के नीचे अलग अलग भाग विद्यमान है ,परन्तु धरातल के नीचे एक निश्चित गहराई पर एक ऐसा तल है जिसके नीचे घनत्व में कोई अन्तर नही पाया जाता ,इसे समतोल तल या Level of compensation कहा जाता है इस तल के उपर घनत्व तथा उचाई में उल्लटा अनुपात पाया जाता है | Level of copnsation धरातल से १०० किलोमीटर की गहराई पर माना जाता है ,इस तल के उपर कम घनत्व की चट्टनो की उचाई अधिक और अधिक घनत्व की चट्टानों की उचाई कम होती है |

बोवी महोदय एयरी और प्राट के सिद्धांतो का तुलनात्मक अध्ययन कर स्पष्ट किया की दोनों के विचारो में एकरूपता तो नही लेकिन समानता जरूर है |इन्होने हैफोर्ड के समतोल तल का समर्थन किया |इनके अनुसार क्षति पूर्ती तल १२० किलोमीटर की गहराई पर है |यह प्रमाणित है कि प्रत्येक ३२ मीटर की गहराई पर १ डिग्री सेंटीग्रेड ताप बढ़ जाता है |इतनी गहराई पर चट्टानों का द्रव्नांक आ जाने से चट्टानें पिघल जायेगी |इस लिए क्षति पूर्ति तल काल्पनिक है|

भूमंडलीय भू-संतुलन सामंजस्य

यह बिल्कुल स्पष्ट है कि, पृथ्वी पर पूर्ण भूसंतुलन नहीं है। पृथ्वी अस्थिर है। आन्तरिक शक्तियाँ अक्सर भूपर्पटी के संतुलन को भंग कर देती हैं। एक निश्चित पेटी में नियमित भूकम्प और ज्वालामुखी उद्भेदन असंतुलन को दर्शाते हैं, इसलिए लगातार एक प्रकार के सामंजस्य की आवश्यकता बनी रहती है। आंतरिक शक्तियाँ और उनके विवर्तनिक प्रभाव धरातल पर असंतुलन के कारण हैं परन्तु प्रकृति हमेशा समस्थितिक सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न करती है। वाह्य शक्तियाँ पृथ्वी के धरातल पर आए अन्तरों को दूर करने का प्रयत्न करती हैं और इस प्रक्रिया में वे ऊँचे भूभागों से पदार्थों को खुरचकर बहुत दूर ले जाकर निचले भागों में निक्षेपित कर देती हैं। इस प्रक्रिया में निक्षेपण के स्थान पर धंसाव द्वारा नीचे के पदार्थों के प्रवाह के कारण एवं खुरचने के स्थान पर अनाच्छादन के अनुपात में उत्थान द्वारा भूमंडलीय संतुलन बना रहता है।

                  सर जोर्ज ऐयरी का भूसंतुलन मॉडल भू-संतुलन या समस्थिति (lsostasy) का अर्थ है पृथ्वी की भूपर्पटी के सतही उच्चावच के रूप में स्थित पर्वतों, पठारों और समुद्रों के उनके भार के अनुसार भूपर्पटी के नीचे स्थित पिघली चट्टानों के ऊपर संतुलन बनाए रखने की अवस्था। पृथ्वी का स्थलमण्डल अपने नीचे स्थित एस्थेनोस्फियर पर एक प्रकार से तैरता हुआ स्थित है और संतुलन के लिए यह आवश्यक माना जाता है कि जहाँ धरातल पर ऊँचे पर्वत या पठार हैं वहाँ स्थलमण्डल की मोटाई अधिक है और इसका निचला हिस्सा पर्वतों की जड़ों की तरह एस्थेनोस्फियर में अधिक गहराई तक घुस हुआ है। पर्वतों के नीचे स्थलमण्डल के इस नीचे एस्थेनोस्फियर में प्रविष्ट भाग अथवा समुद्रों के नीचे कम गहराई तक घुसे भाग के संतुलन की व्यख्या करने वाले तीन मॉडल प्रस्तुत किये गए हैं। आइसोस्टैसी शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम क्लैरेंस डटन (Clarence Dutton) ने 1889 में किया था।
 
पृथ्वी : -
पृथ्वी, (अंग्रेज़ी: "अर्थ"(Earth), लातिन:"टेरा"(Terra)) जिसे विश्व (The World) भी कहा जाता है, सूर्य से तीसरा ग्रह और ज्ञात ब्रह्माण्ड में एकमात्र ग्रह है जहाँ जीवन उपस्थित है। यह सौर मंडल में सबसे घना और चार स्थलीय ग्रहों में सबसे बड़ा ग्रह है। रेडियोधर्मी डेटिंग और साक्ष्य के अन्य स्रोतों के अनुसार, पृथ्वी की आयु लगभग 4.54 बिलियन साल हैं। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण, अंतरिक्ष में अन्य पिण्ड के साथ परस्पर प्रभावित रहती है, विशेष रूप से सूर्य और चंद्रमा से, जोकि पृथ्वी का एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह हैं। सूर्य के चारों ओर परिक्रमण के दौरान, पृथ्वी अपनी कक्षा में 365 बार घूमती है; इस प्रकार, पृथ्वी का एक वर्ष लगभग 365.26 दिन लंबा होता है। पृथ्वी के परिक्रमण के दौरान इसके धुरी में झुकाव होता है, जिसके कारण ही ग्रह की सतह पर मौसमी विविधताये (ऋतुएँ) पाई जाती हैं। पृथ्वी और चंद्रमा के बीच गुरुत्वाकर्षण के कारण समुद्र में ज्वार-भाटे आते है, यह पृथ्वी को इसकी अपनी अक्ष पर स्थिर करता है, तथा इसकी परिक्रमण को धीमा कर देता है। पृथ्वी न केवल मानव (human) का अपितु अन्य लाखों प्रजातियों (species) का भी घर है और साथ ही ब्रह्मांड में एकमात्र वह स्थान है जहाँ जीवन (life) का अस्तित्व पाया जाता है। इसकी सतह पर जीवन का प्रस्फुटन लगभग एक अरब वर्ष पहले प्रकट हुआ। पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के लिये आदर्श दशाएँ (जैसे सूर्य से सटीक दूरी इत्यादि) न केवल पहले से उपलब्ध थी बल्कि जीवन की उत्पत्ति के बाद से विकास क्रम में जीवधारियों ने इस ग्रह के वायुमंडल (the atmosphere) और अन्य अजैवकीय (abiotic) परिस्थितियों को भी बदला है और इसके पर्यावरण को वर्तमान रूप दिया है। पृथ्वी के वायुमंडल में आक्सीजन की वर्तमान प्रचुरता वस्तुतः जीवन की उत्पत्ति का कारण नहीं बल्कि परिणाम भी है। जीवधारी और वायुमंडल दोनों अन्योन्याश्रय के संबंध द्वारा विकसित हुए हैं। पृथ्वी पर श्वशनजीवी जीवों (aerobic organisms) के प्रसारण के साथ ओजोन परत (ozone layer) का निर्माण हुआ जो पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र (Earth's magnetic field) के साथ हानिकारक विकिरण को रोकने वाली दूसरी परत बनती है और इस प्रकार पृथ्वी पर जीवन की अनुमति देता है। पृथ्वी का भूपटल (outer surface) कई कठोर खंडों या विवर्तनिक प्लेटों में विभाजित है जो भूगर्भिक इतिहास (geological history) के दौरान एक स्थान से दूसरे स्थान को विस्थापित हुए हैं। क्षेत्रफल की दृष्टि से धरातल का करीब ७१% नमकीन जल (salt-water) के सागर से आच्छादित है, शेष में महाद्वीप और द्वीप; तथा मीठे पानी की झीलें इत्यादि अवस्थित हैं। पानी सभी ज्ञात जीवन के लिए आवश्यक है जिसका अन्य किसी ब्रह्मांडीय पिण्ड के सतह पर अस्तित्व ज्ञात नही है। पृथ्वी की आतंरिक रचना तीन प्रमुख परतों में हुई है भूपटल, भूप्रावार और क्रोड। इसमें से बाह्य क्रोड तरल अवस्था में है और एक ठोस लोहे और निकल के आतंरिक कोर (inner core) के साथ क्रिया करके पृथ्वी मे चुंबकत्व या चुंबकीय क्षेत्र को पैदा करता है। पृथ्वी बाह्य अंतरिक्ष (outer space), में सूर्य और चंद्रमा समेत अन्य वस्तुओं के साथ क्रिया करता है वर्तमान में, पृथ्वी मोटे तौर पर अपनी धुरी का करीब ३६६.२६ बार चक्कर काटती है यह समय की लंबाई एक नाक्षत्र वर्ष (sidereal year) है जो ३६५.२६ सौर दिवस (solar day) के बराबर है पृथ्वी की घूर्णन की धुरी इसके कक्षीय समतल (orbital plane) से लम्बवत (perpendicular) २३.४ की दूरी पर झुका (tilted) है जो एक उष्णकटिबंधीय वर्ष (tropical year) (३६५.२४ सौर दिनों में) की अवधी में ग्रह की सतह पर मौसमी विविधता पैदा करता है। पृथ्वी का एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह चंद्रमा (natural satellite) है, जिसने इसकी परिक्रमा ४.५३ बिलियन साल पहले शुरू की। यह अपनी आकर्षण शक्ति द्वारा समुद्री ज्वार पैदा करता है, धुरिय झुकाव को स्थिर रखता है और धीरे-धीरे पृथ्वी के घूर्णन को धीमा करता है। ग्रह के प्रारंभिक इतिहास के दौरान एक धूमकेतु की बमबारी ने महासागरों के गठन में भूमिका निभाया। बाद में छुद्रग्रह (asteroid) के प्रभाव ने सतह के पर्यावरण पर महत्वपूर्ण बदलाव किया। 

पठार
भूमि पर मिलने वाले द्वितीय श्रेणी के स्थल रुपों में पठार अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं और सम्पूर्ण धरातल के ३३% भाग पर इनका विस्तार पाया जाता हैं।अथवा धरातल का विशिष्ट स्थल रूप जो अपने आस पास की जमींन से प्रयाप्त ऊँचा होता है,और जिसका ऊपरी भाग चौड़ा और सपाट हो पठार कहलाता है। सागर तल से इनकी ऊचाई ३०० मीटर तक होती हैं लेकिन केवल ऊचाई के आधार पर ही पठार का वर्गिकरण नही किया जाता हैं। 

घनत्व
भौतिकी में किसी पदार्थ के इकाई आयतन में निहित द्रव्यमान को उस पदार्थ का घनत्व (डेंसिटी) कहते हैं। इसे ρ या d से निरूपित करते हैं। अर्थात अतः घनत्व किसी पदार्थ के घनेपन की माप है। यह इंगित करता है कि कोई पदार्थ कितनी अच्छी तरह सजाया हुआ है। इसकी इकाई किग्रा प्रति घन मीटर होती है। 

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