भारत के संविधान से संबंधित पिछले आलेख के अंतर्गत संविधान में उल्लेखित किए गए आपात उपबंध के संबंध में चर्चा की गई थी, इस आलेख में भारत के संविधान में निहित संसद द्वारा संविधान संशोधन की शक्ति तथा उसकी प्रक्रिया के संबंध में सारगर्भित चर्चा की जा रही है।
भारत के संविधान का संशोधन (अनुच्छेद 368)
भारत की स्वतंत्रता के बाद भारत के संविधान निर्माताओं ने भारत राज्य के लिए संविधान तैयार किया। भारत का संविधान संविधान सभा द्वारा अंतिम रूप से अंगीकृत अधिनियमित 26 जनवरी 1950 ईस्वी में किया गया।
26 नवंबर 1950 को संविधान पारित कर अपना लिया गया था परंतु उसका परिवर्तन 26 जनवरी 1950 को हुआ। इस दिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा अंगीकृत पूर्ण स्वराज के संकल्प की बीसवीं वर्षगांठ थी तभी से इस दिन भारत का गणतंत्र दिवस भी माना जाता गया है। भारत के प्रशासन के संबंध में भारत के संविधान द्वारा समस्त प्रावधान कर दिए गए।
भारत के संविधान में अंग्रेजों द्वारा पारित किया गया भारत सरकार अधिनियम 1935 अधिक प्रभावी रहा है। संविधान के अधिकांश उपबंध भारत सरकार अधिनियम 1935 से लिए गए हैं जिसका निर्माण अंग्रेजों द्वारा किया गया था। जब संविधान तैयार हो गया उसके समस्त बंधुओं का निर्धारण हो गया तब प्रश्न भारत के संविधान के संशोधन का खड़ा हुआ।
- भारत के संविधान निर्माताओं ने भारत के संविधान संशोधन की शक्ति संविधान में ही निहित की है अर्थात भारत के संविधान से ही संविधान में संशोधन किया जा सकता है परंतु एक बात ध्यान देने योग्य यह है कि केवल भारत के संविधान में संशोधन किया जा सकता है इस को बदला नहीं जा सकता है।
- संविधान का मूल अस्तित्व नहीं बदला जाता है अपितु केवल परिस्थितियों और समय के अनुरूप बदलते युग के अनुरूप जनहित में आवश्यक संशोधन संसद द्वारा किए जा सकते हैं।
- संशोधन की प्रक्रिया को भारत के संविधान निर्माताओं ने अत्यंत जटिल भी नहीं बनाया और अत्यंत सरल भी नहीं बनाया अपितु इस संबंध में भारत के संविधान निर्माताओं ने मध्य मार्ग अपनाया है।
- मध्य मार्ग का अनुसरण करके भारत के संविधान को इस प्रकार बनाया गया है कि इसके कुछ उपबंधों में साधारण संशोधन साधारण प्रक्रिया से संशोधन किया जा सकता है और कुछ ऐसे विशेष उपबंध जिन में संशोधन अत्यधिक जटिल प्रक्रिया से किया जाता है।
- संविधान को स्थाई बना देने से देश और समाज की प्रगति को रोक दिया जाता तथा भारत का संविधान समय युग के अनुरूप मेल नहीं खाता परीसंघात्मक संविधान को एक ऐसा संविधान कहा जाता है जिस में संशोधन कठिन होता है।
- जैसे अमेरिका के संविधान में संशोधन कठिन है भारत के संविधान को संविधान निर्माताओं ने विश्व के अनेक संगठनों के अध्ययन करने के परिणामस्वरूप बनाया है इसलिए संविधान को इस प्रकार से डाल दिया गया कि उसके कुछ उपबंधों में साधारण प्रकार से संशोधन किया जा सकता है और केवल कुछ विशेष उपबंधों में ही जटिल प्रक्रिया का निर्धारण किया है।
- इससे सभी परीसंघात्मक संविधानों के संचालन में हुई कठिनाइयों को भारत के संविधान में दूर कर दिया गया। किसी देश की जनता के लिए संविधान बनाया जाता है और उसकी आवश्यकता के साथ-साथ उसमें परिवर्तन भी आवश्यक होता है।
- भारतीय संविधान एक लिखित संविधान होते हुए भी पर्याप्त परिवर्तनशील संविधान है। संविधान में केवल कुछ ही ऐसे उपबंध है जिनमें परिवर्तन करने के लिए विशेष प्रक्रिया को अपनाया जाता है।
- भारत के संविधान के भाग 20 के अंतर्गत अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन की प्रक्रिया दी गई है। न्यायाधीशों ने कहा है कि अनुच्छेद 368 में केवल संविधान संशोधन की प्रक्रिया दी गई है न कि संविधान संशोधन करने की शक्ति दी गई है। संविधान संशोधन करने की शक्ति भारत के संविधान के अनुच्छेद 243, 246, 248 में निहित है।
संशोधन करने की शक्ति
भारत के संविधान के अनुच्छेद 368(1) के अंतर्गत भारत की संसद को संविधान संशोधन करने की शक्ति प्रदान की गई है। अनुच्छेद 368 के अनुसार संविधान के किसी बात के होते हुए भी संसद अपनी संविधान शक्ति का प्रयोग करते हुए संविधान के किसी उपबंध का परिवर्द्धन, परिवर्तन या निरसन के रूप में इस अनुच्छेद में उल्लिखित प्रक्रिया के अनुसार संशोधन कर सकती है।
अनुच्छेद 368 के खंड 2 के अनुसार संविधान के सभी संशोधन विधेयक संसद के प्रत्येक सदस्य की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उच्च सदन के उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत द्वारा पारित किया जाएगा पर अगर संशोधन अनुच्छेद 54 55 अनुच्छेद 73, 162 या अनुच्छेद 241 में या अनुच्छेद 73, 162 में या अनुच्छेद 124, 147, 214, 231, 241 अनुच्छेद 245 से 255 तक अनुच्छेद अनुसूची 4 और अनुच्छेद 368 में है तो ऐस संशोधन विधेयक को राष्ट्रपति के समक्ष अनुमति के के लिए प्रस्तुत किए जाने केे पहले उसे कम से कम आधे राज्यों के विधान मंडलों द्वारा अनुुसमर्पित किया किया जाना आवश्यक होगा। अनुच्छेद 13 की कोई बात भारत के संविधान के अनुच्छेद 368 के अधीन किए गए संशोधन को लागू नहीं होगी।
यदि भारत के संविधान के अनुच्छेद 368 का गहनता से अध्ययन किया जाए तो यह प्रतीत होता है कि संविधान के विभिन्न रूपों में संशोधन की प्रक्रिया को तीन भागों में विभाजित कर दिया गया है और हर भाग के लिए एक अलग प्रक्रिया का निर्धारण किया गया है। जो इस प्रकार है-
साधारण बहुमत
भारत के संविधान के कुछ अनुच्छेद ऐसे हैं जो विशेष सांविधानिक महत्व के अनुच्छेद नहीं है तथा इनमें संशोधन एक साधारण बहुमत के माध्यम से किया जा सकता है। यह संविधान संशोधन की सबसे पहली श्रेणी है। इस श्रेणी में अनुच्छेद 4 ,170, 239A आते हैं।
इसमें संशोधन के लिए संसद का साधारण बहुमत पर्याप्त है। इन अनुच्छेदों को अनुच्छेद 368 के क्षेत्र से परे रखा गया है तथा इनमें संशोधन सरलतापूर्वक किया जा सकता है।
विशेष बहुमत
इसमें संविधान के अन्य सभी उपबंध आते हैं जो अनुच्छेद एक और तीन में सम्मिलित नहीं है। उपबंधों के संशोधन के लिए केवल संसद का विशेष बहुमत पर्याप्त है। राज्यों की उपस्थिति तथा मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से इस प्रकार का संशोधन किया जा सकता है अर्थात भारत के संविधान के लगभग सभी उपबंध में संशोधन विशेष बहुमत के माध्यम से जिसे दो तिहाई का बहुमत कहा जाता है संशोधन किया जा सकता है। इसके लिए राज्यों के अनुमोदन की कोई आवश्यकता नहीं होती है।
विशेष बहुमत तथा राज्यों द्वारा अनुसमर्थन
भारत के संविधान के संशोधन की प्रक्रिया में यह तीसरी और अंतिम सबसे जटिल प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत संशोधन की प्रक्रिया अत्यंत कठिन बना दी गई है। यदि व्यवहार की दृष्टि से देखा जाए तो इस प्रकार का संशोधन बहुत कठिन प्रतीत होता है।
इस श्रेणी में आते हैं वह उपबंध आतें हैं जो संघात्मक ढांचे से संबंधित है। इसके लिए सबसे कठिन प्रक्रिया अपनाई गई है। इसमें संशोधन के लिए संसद के सदस्यों का दो तिहाई सदस्यों का बहुमत और कम से कम 50% राज्यों के विधान मंडलों का समर्थन भी आवश्यक है अर्थात यदि एक राजनीतिक दल संसद के दोनों सदनों में बहुमत ले आए तथा भारत राज्य के 50% से अधिक राज्यों को विजय कर ले तब ही उस राजनीतिक दल द्वारा इन उपबंधों में कोई संशोधन किया जा सकता है।
संसद के इस विशेष बहुमत तथा राज्यों के अनुसार प्रथम द्वारा संशोधित किए जाने वाले संविधान के ऐसे उपबंध निम्नलिखित हैं-
- राष्ट्रपति का निर्वाचन (अनुच्छेद 54, 55)
- संघ तथा राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार (अनुच्छेद 73, 162)
- संघ तथा राज्य न्यायपालिका (अनुच्छेद 124, 147, 214, 231 और 241)
- संघ और राज्यों के बीच विधायी शक्ति का विभाजन (अनुच्छेद 245 से 255)
- संसद में राज्यों के प्रतिनिधित्व (भारत के संविधान की अनुसूची 4)
- भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची के किसी विषय में
- अनुच्छेद 368 के उपबंधों के विषय में।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 368 का खंड यह कहता है कि संशोधन के लिए विधेयक किसी भी सदन में आरंभ किया जा सकता है। जब यह विधेयक प्रत्येक सदस्य प्रत्येक सदन के कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा अर्थात 50% से अधिक तथा उसमें उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत द्वारा पारित किया जाता है। राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा जो विधेयक पर अनुमति देने के लिए बाध्य होगा। विधेयक पर राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त हो जाने पर संविधान विधेयक केंद्र उपबंधों के अनुसार सूचित कर दिया जाएगा। अनुच्छेद 368 के अधीन रहते हुए संविधान संशोधन विधेयक उसी प्रक्रिया से पारित किए जाते हैं जैसे सामान्य कोई सामान्य अधिनियम बनाया जाता है। कुछ मामलों में संविधान संशोधन विधेयक के पारित करने की प्रक्रिया सामान्य विधेयकों के पारित करने की प्रक्रिया से अलग है। साधारण विधेयकों के मामले में जब किसी विधेयक पर संसद के दोनों सदनों में असहमति यह गतिरोध उत्पन्न हो जाता है तो उसे समाप्त करने के लिए दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाने का उपबंध है जिसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 108 में किया गया है किंतु यह प्रक्रिया संविधान संशोधन पर लागू नहीं होती। संविधान संशोधन के सदनों में प्रस्तुत करने के लिए राष्ट्रपति की मंजूरी आवश्यक नहीं है।
भारत के संविधान के कुछ ऐसे विषय जो भारत के संविधान को परीसंघात्मक प्रकृति का बनाते हैं उनमें संशोधन करने की प्रक्रिया को जटिल बनाया गया है तथा बाकी के अन्य विषयों में संशोधन करने की प्रक्रिया को सरल बनाया है जिससे भारत का संविधान आधुनिक युग के साथ गतिमान हो सके तथा भारत की जनता के हित में कार्य हो सके। इसके बाद यह प्रश्न आता है कि भारत के संविधान में उल्लेखित किए गए मूल अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है या नहीं! सर्वप्रथम इस प्रश्न पर विचार शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष आया था। इसमें संशोधन के प्रथम संशोधन अधिनियम 1961 की विधिमान्यता को चुनौती दी गई थी। चुनौती का आधार यह था कि संशोधन संविधान के भाग 3 में दिए गए मूल अधिकारों का अतिक्रमण करता है। अनुच्छेद 13(2) द्वारा उल्लेखित है कि राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो नागरिकों के भाग 3 में दिए गए मूल अधिकारों को कम करती है। अनुच्छेद 368 के संशोधन विधि है और भाग 3 में दिए गए अधिकारों के विरुद्ध होने के कारण वह असंवैधानिक है। उच्चतम न्यायालय ने प्रश्नों के तर्क को अस्वीकार करते हुए यह अभिकथन किया कि संविधान में संशोधन की शक्ति जिसमें मूल अधिकार भी शामिल है अनुच्छेद 368 में निहित है। अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त विधि शब्द के अंतर्गत केवल वह विधि आती है जो सामान्य विधायी शक्ति के प्रयोग द्वारा बनाई जाती है न कि संवैधानिक संशोधन द्वारा। अनुच्छेद 368 के अधीन पारित सांविधानिक संशोधन संवैधानिक होंगे भले ही वह मूल अधिकारों क्यों न हो।
सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य के मामले में
यह प्रश्न उच्चतम न्यायालय के पास दोबारा आया। इसमें संविधान में 17वें संशोधन की वैधता को चुनौती दी गई थी। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने शंकरी प्रसाद के मामले में दिए हुए निर्णय का अनुमोदन किया है और कहा कि यदि संविधान निर्माता मूल अधिकारों को संशोधन से परे रखना चाहते होते तो निश्चित ही उन्होंने इसके बारे में संविधान में स्पष्ट उपबंध का समावेश कर देतें। इसके बाद गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य एआईआर 1967 उच्चतम न्यायालय 1663 के मामले में बहुमत से शंकरी प्रसाद और सज्जन सिंह के मामले में दिए गए अपने निर्णय को उलट दिया और यह कहा कि संसद को भाग 3 में संशोधन करने की कोई विधायी शक्ति नहीं प्राप्त है। इस मामले में न्यायाधीशों ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा कि संविधान के संशोधन की शक्ति संविधान के अनुच्छेद 245 246 248 में निहित है न कि अनुच्छेद 368 में। अनुच्छेद 368 में केवल संशोधन की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। संविधान संशोधन की शक्ति का नहीं संशोधन एक विधायी प्रक्रिया है। इस निर्णय के बाद भारत के संविधान का 24 वा संशोधन अधिनियम 1971 लाया गया जिससे गोलकनाथ के मामले में दिए गए निर्णय की कठिनाई को दूर किया जा सके। इस संशोधन में अनुच्छेद 13 (2) में संशोधन किया गया और उसमें एक नया खंड जोड़ा गया जो यह कहता है कि संसद द्वारा अनुच्छेद 368 के अधीन पारित कोई भी विधि अनुच्छेद 13(2) में प्रयुक्त विधि शब्द के अंतर्गत शामिल नहीं होती।
अनुच्छेद 368 केवल संशोधन की प्रक्रिया का ही उपबंध नहीं करता है वरन उसके अंतर्गत संविधान संशोधन की शक्ति विहित है। अनुच्छेद 368 के खंड (2) के पूर्व एक नया खंड जोड़ा गया जो यह उपबंध करता है कि इस संविधान में किसी बात के होते हुए संसद अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए संविधान में किसी उपबंध का परिवर्तन के रूप में संशोधन इस अनुच्छेद में दी प्रक्रिया का अनुसार कर सकता है। मूल अधिकारों में संशोधन से संबंधित ऐतिहासिक मामला केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के प्रकरण में आया जो 1973 का मामला है जिसमें 1 मठ के महंत द्वारा भूमि अधिग्रहण के संबंध में न्यायालय के समक्ष संसद की संविधान संशोधन करने की शक्ति के संदर्भ में सीमा पूछी गई थी। सरकार का कहना था कि क्या संसद की शक्तियां असीमित और अनियंत्रित है और यह किन्हीं व्यवस्थित परिसीमा द्वारा सीमित नहीं है।
इस पर सरकार का यह कथन था कि लोकतंत्र को हटाकर एक दलीय शासन भी स्थापित किया जा सकता है। इस अवस्था को भी समाप्त किया जा सकता है अर्थात पूरे संविधान को ही बदला जा सकता है।
इस मामले में भारत के उच्चतम न्यायालय में 13 न्यायाधीशों की पीठ बैठाई गई। उच्चतम न्यायालय ने सर्वसम्मति से निर्णय दिया कि संसद को मूल अधिकारों में संशोधन करने की शक्ति प्राप्त है और अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त विधि शब्द के अंतर्गत अनुच्छेद 368 के अधीन पारित सांविधानिक संशोधन में शामिल नहीं है। इस प्रकार न्यायालय के मामले में निर्णय ने कहा कि गोलकनाथ के मामले में दिए अपने निर्णय को उलट दिया। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 368 जैसा कि यह मूल रूप में था के अंतर्गत संविधान संशोधन करने की शक्ति तथा उसकी प्रक्रिया दोनों निहित है। अनुच्छेद 368 में जो शक्ति है अभिव्यक्त करने के अतिरिक्त कुछ और नहीं है।
उक्त संशोधन अनुच्छेद द्वारा प्रदत शक्ति का विस्तार नहीं करता है इसलिए इसमें परिवर्तन का कोई महत्व नहीं है। संशोधन अनुच्छेद में जोड़ी गई उक्त शब्दावली का कोई महत्व नहीं है और संसद द्वारा 24वा संविधान संशोधन विधिमान्य है। मामले में न्यायालय ने 7/6 के बहुमत से यह निर्णय लिया कि यदि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान में संशोधन करने की शक्ति प्राप्त व्यापक है पर वह असीमित नहीं है और वह कोई ऐसा संशोधन नहीं कर सकती जिससे संविधान के मूल तत्व और उसका आधारभूत ढांचा नष्ट हो जाए। संसद की कुछ सीमाएं हैं जो स्वयं संविधान में निहित है। संसद को इसी परिधि के भीतर अपनी शक्ति का प्रयोग करना है
संविधान के बुनियादी ढांचे तथा उसकी रूपरेखा के अधीन रहते हुए संशोधन विषयक शक्ति परिपूर्ण है और उसमें विभिन्न अनुच्छेद और जिनमें मूल अधिकार से संबंधित अनुच्छेद भी हैं परिवर्तन करने की शक्ति भी शामिल है। संसद के संविधान के संशोधन शक्ति पर जो कुछ विकसित परिसीमा है वह स्वयं संसद के अंदर विद्यमान है। इसके बाहर किसी परिसीमा की कल्पना नहीं की जा सकती है। संशोधन की शक्ति पर नैसर्गिक अधिकार के आधार पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता।
संविधान के उस भाग को छोड़कर जो संविधान के बुनियादी ढांचे रूपरेखा से संबंधित है संशोधन किया जा सकता है। संपत्ति का अधिकार भारत के संविधान के मूलभूत ढांचे से संबंधित नहीं है।
इस मामले में न्यायाधीशों ने संविधान के कुछ विषयों को संविधान का आधारभूत ढांचा कहा है वह विषय निम्नलिखित हैं-
- विधि शासन।
- समता का अधिकार।
- शक्ति के पृथक्करण का सिद्धांत।
- संविधान की सर्वोच्चता।
- परिसंघवाद।
- पंथनिरपेक्षता।
- देश का संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक और गणतंत्र का ढांचा।
- संसदीय प्रणाली की सरकार।
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता।
- उच्चतम न्यायालय की अनुच्छेद 32, 136, 141, 142 के अधीन शक्ति।
- संविधान संशोधन की सीमित शक्ति।
अर्थात इस बात से निर्धारित होता है कि संसद की संविधान करने की सीमित शक्ति भी भारत के संविधान का आधारभूत ढांचा अर्थात संसद के संशोधन करने की शक्ति असीमित नहीं की जा सकती क्योंकि संशोधन की शक्ति को भी असीमित नहीं माना गया है।
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