राज्य के सप्तांग सिद्धांत की विवेचना करें

राज्य के सप्तांग सिद्धांत

प्राचीन भारत के मौर्य युग ने दुनिया को एक महत्वपूर्ण ग्रंथ दिया था, कौटिल्य का अर्थशास्त्र । यह राजनीतिक राज्य-व्यवस्था में गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान करता है । कौटिल्य को भारतीय मेकियावेली के रूप में जाना जाता है क्योंकि वह निर्मम और चतुर रणनीति और नीतियों के कारण युद्धकला सहित राज्यस्तरीय दृष्टिकोण को दर्शाता है ।
 
‘प्रकृति‘ की स्थिति को कुल अराजकता में से एक माना जाता है, जिसमें ‘सही था‘ । जब मत्स्यनय द्वारा लोगों पर अत्याचार किया जाता था, तो मछली का कानून, जिसके अनुसार बड़ी मछलियां उन छोटे लोगों को निगल लेती थीं जिन्हें मनु चुना गया था – विवस्वत राजा का पुत्र ।
               यह तय किया गया था कि राजा को अनाज और सोने के दसवें हिस्से का एक-छठा हिस्सा उसके हिस्से के रूप में मिलना चाहिए। यह राजस्व था जिसने राजा को अपने विषयों की सुरक्षा और समृद्धि सुनिश्चित करना संभव बनाया। लोग करों का भुगतान करने के लिए सहमत हो गए और उन्होंने एक व्यक्ति पर शासन किया ताकि वे कल्याण और सुरक्षा का आनंद ले सकें। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में, सामाजिक अनुबंध का कोई स्पष्ट सिद्धांत नहीं है जैसा कि नीचे दिया गया है । राजा को शक्तिशाली बनाने के लिए न तो कौटिल्य ने अनुबंध का उपयोग किया ।


वैदिक साहित्य तथा प्रारंभिक धर्मसूत्रों में दी गयी जानकारी के बाद भी हम राज्य की कोई निश्चित परिभाषा नहीं दे सकते। इसका कारण यह है, कि इस समय तक राज्य संस्था को ठोस आधार नहीं मिल सका था। उत्तरी भारत में विशाल राजतंत्रों की स्थापना के साथ ही राज्य के स्वरूप का निर्धारण किया गया। सर्वप्रथम कौटिल्य द्वारा रचित अर्थशास्र में ही राज्य की सही परिभाषा प्राप्त होती है। यह राज्य को एक सजीव एकात्मक शासन-संस्था के रूप में मान्यता प्रदान करता है, तथा उसे सात प्रकृतियों अर्थात् अंगों में निरूपित करता है, जो निम्नलिखित हैं-
  1.  स्वामी (शासक)
  2.  अमात्य (मंत्री)
  3.  जनपद (जनसंख्या)
  4.  दुर्गा (फोर्टिफाइड कैपिटल)
  5.  कोष (खजाना)
  6.  डंडा (सेना)
  7.  मित्र (सहयोगी और मित्र)


कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित राज्य का उपर्युक्त सप्तांग सिद्धांतवाद के लेखकों के लिये आदर्श स्वरूप बना रहा। कुछ ग्रंथों में इन अंगों के पर्याय भी मिलते हैं। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में स्वामी तथा अमात्य के स्थान पर क्रमशः साम तथा दान का उल्लेख हुआ है। किन्तु कौटिल्य द्वारा निर्धारित अंग ही इतिहास में प्रमाणिक माने जाते हैं।

स्वामी (The King) :-
यह पहला और सबसे महत्वपूर्ण तत्व है । स्वामी का अर्थ है सम्राट । कौटिल्य ने राजा यानि स्वामी के गुणों की व्याख्या करते हुए यह बताया है की उसे उच्च कुल में उत्पन्न, धर्म में रूचि रखने वाला, दूरदर्शी, सत्य बोलने वाला, महत्वकांक्षी, अथक परिश्रमी, गुणियों की पहचान और आदर करने वाला , शिक्षा प्रेमी, योग्य मंत्रियों से युक्त, सामन्तगणों को वश में रखने वाला होना चाहिए । उसे बहादुर, सेवा करने के भावना, शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा, प्रत्येक बात को समझने की शक्ति होनी चाहिए । उसे सदाचारी होना चाहिए और उसे अपने बच्चों की तरह अपनी प्रजा का ध्यान रखना चाहिए । कौटिल्य ने सम्राट को व्यापक शक्तियाँ दी हैं, लेकिन वे शक्तियाँ उनके विषयों के कल्याण के लिए हैं । अपने विषयों के कल्याण और खुशी में, अपनी खुशी को निहित करता है कौटिल्य राजा की शिक्षा पर बल देता है और वह यह मानता है की अशिक्षित राजकुल उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार घुन लगी लकड़ी कौटिल्यीय राज शास्त्रीय व्यवस्था में राजा को शासन की धुरी माना गया है जो उसे गति प्रदान करता है ।
           स्वामी (राजा) शीर्ष के तुल्य है। वह कुलीन, बुद्धिमान, साहसी, धैर्यवान, संयमी, दूरदर्शी तथा युद्ध-कला में निपुण होना चाहिए।

अमात्य (मंत्री) :-
अमात्य (मंत्री) राज्य की आँखे हैं। इस शब्द का प्रयोग कौटिल्य ने मंत्रीगण, सचिव, प्रशासनिक व न्यायिक पदाधिकारियों के लिए भी किया है। वे अपने ही देश के जन्मजात नागरिक, उच्च कुल से सम्बंधित, चरित्रवान, योग्य, विभिन्न कलाओं में निपुण तथा स्वामीभक्त होने चाहिए।
                 राजा की दूसरी प्रकृति अमात्य होते है और राज्य संचालन के वास्तविक अंग होते है । यह मंत्रियों की परिषद के साथ-साथ सहायक अधिकारियों और अधीनस्थ कर्मचारियों को संदर्भित करता है । वे राज्य के दैनिक मामलों में सम्राट की सहायता के लिए हैं । अमात्य राजा को सुझाव देता है और कर एकत्र करता है, नए गाँव और शहर विकसित करता है, राज्य की रक्षा और राजा द्वारा सौंपे गए अन्य सभी कार्यों को सुनिश्चित करता है । राजा को अमात्य की नियुक्ति बहुत सोच-समझा कर करनी चाहिए । शासन की सुविधा के लिए केन्द्रीय प्रशासन अनेक विभागों में विभाजित था । प्रत्येक विभाग को ‘तीर्थ’ कहा जाता था ।  कौटिल्य ने निम्न 18 तीर्थ के प्रधान अधिकारियों का उल्लेख किया है –
1. मंत्री    2. पुरोहित    3. सेनापति    4. युवराज     5. दौवरिक     6. अन्तर्विशक    7. प्रशस्ता    8. समाहर्ता    9. सन्निधाता    10. प्रदेष्टा    11. नायक    12. पौर    13. कर्मान्तिक     14. मंत्रीपरिषाध्यक्ष    15. दण्डपाल    16. दुर्गपाल    17. अन्तपाल    18. अतिवाहिका ।

जनपद (जनसंख्या) :-
जनपद (भूमि तथा प्रजा या जनसंख्या) राज्य की जंघाएँ अथवा पैर हैं, जिन पर राज्य का अस्तित्व टिका है। कौटिल्य ने उपजाऊ, प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण, पशुधन, नदियों, तालाबों तथा वन्यप्रदेश प्रधान भूमि को उपयुक्त बताया है।
जनसंख्या में कृषकों, उद्यमियों तथा आर्थिक उत्पादन में योगदान देने वाली प्रजा सम्मिलित है। प्रजा को स्वामिभक्त, परिश्रमी तथा राजा की आज्ञा का पालन करने वाला होना चाहिए।
           कौटिल्य ने जनपद प्रकृति में आधुनिक युग के राज्य के दो तत्वों का सम्मिश्रण कर दिया है । जनपद से उसका अभिप्राय किसी प्रदेश की भूमि और जनता से है । भारतीय अर्थ में जनपद का प्रारम्भिक अर्थ एक जाती के प्रदेश से लिया जाता था लेकिन जब राज्य का स्वरूप बड़े राष्ट्रीय राज्यों में परिवर्तित हो गया, उसमें अनेक जातियों के लोगों का होना आवश्यक हो गया । यह क्षेत्र और राज्य के लोगों को संदर्भित करता है । राज्य का क्षेत्र उपजाऊ होना चाहिए और इसमें वन, नदियाँ, पहाड़, खनिज, वन्य जीवन आदि की प्रचुरता होनी चाहिए । इसके लिए अच्छी जलवायु होनी चाहिए । लोगों को अपने राजा के प्रति वफादार होना चाहिए, कड़ी मेहनत, अनुशासित, धार्मिक, अपनी मातृभूमि के लिए लड़ने के लिए तैयार होना चाहिए, नियमित रूप से और खुशी से करों का भुगतान करना चाहिए ।

दुर्ग (किला) :-
दुर्ग (किला) राज्य की बाहें हैं, जिनका कार्य राज्य की रक्षा करना है। राजा को ऐसे किलों का निर्माण करवाना चाहिए, जो आक्रमक युद्ध हेतु तथा रक्षात्मक दृष्टिकोण से लाभकारी हों। कौटिल्य ने चार प्रकार के दुर्गों-औदिक (जल) दुर्ग, पर्वत (पहाड़ी) दुर्ग, वनदुर्ग (जंगली) तथा धन्वन (मरुस्थलीय) दुर्ग का वर्णन किया है।
          यह किलों को संदर्भित करता है । विदेशी आक्रमणों से रक्षा सुनिश्चित करने के लिए राज्य के पास रणनीतिक स्थानों पर पर्याप्त संख्या में किले होने चाहिए । पहाड़ियों / पहाड़ों, रेगिस्तानों, घने जंगलों और बड़े जल निकायों के पास किले बनाए जाने चाहिए । वे सैनिकों को इकट्ठा करते हैं, आपातकाल के लिए खाद्यान्न का भंडारण करते हैं और राजा के लिए एक ठिकाने के रूप में भी काम करते हैं जब उनका जीवन खतरे में होता है । कौटिल्य ने दुर्ग के चर प्रकार बताये है जो निम्नलिखित है –
  1. ‘औषक’ दुर्ग – इस दुर्ग के चरों ओर जल से घिरा होता है और दुर्ग के बीच में टापू के समान होता है ।
  2. ‘पार्वत’ दुर्ग – इस तरह के दुर्ग पर्वत श्रेणियों,चट्टानों आदि से घिरा हुआ होता है । यह अँधेरी गुफा के समान होता है । 
  3. ‘धान्वन’ दुर्ग – यह दुर्ग ठीक मरुस्थल में बना होता है । उसके आसपास जल, घास, वृक्ष आदि का नामोनिशान तक नहीं होता है ।
  4. ‘वन’ दुर्ग – इस दुर्ग की खास विशेषता यह है की उसके चारो ओर दलदल या काँटेदार झाड़ियो का समूह होता है ।
इन दुर्गो में ‘औदक’ एवं ‘पर्वत’ संकटकाल में जनपद की रक्षा करने में सहायक होते है । ‘धान्वन’ और ‘वन’ वर्ग में जंगलों की रक्षा वाले अपनी रक्षा करते है और विपति के समय राजा भी अपनी रक्षा करता है ।

कोष (खजाना) :-
इसका अर्थ है राज्य का खजाना । । प्रजा के हित के लिए आवश्यक कार्यो को पूरा करने के लिए, उसकी रक्षा के लिए सेना रखने के लिए तथा नगर आदि की व्यवस्था करने के लिए राज्य कोष की आवश्यकता होती है ।  वित्त किसी भी राज्य का जीवन रक्त है जिसके बिना इसे चलाना लगभग असंभव है। वेतन का भुगतान करने, नए बुनियादी ढांचे के निर्माण आदि के लिए धन की आवश्यकता होती है । राजकोष को धन और मूल्यवान धातुओं और रत्नों से भरा होना चाहिए । इसे कराधान और युद्ध में दुश्मन राज्यों को लूटने के माध्यम से बढ़ाया जा सकता है । यह कोष संकटकाल में तथा शान्तिकाल में राजा की काम आयेगा ।
कोष (राजकोष) राजा के मुख के समान है। कोष को राज्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व माना गया है, क्योंकि राज्य के संचालन तथा युद्ध के समय धन की आवश्यकता होती है। कोष इतना प्रचुर होना चाहिए कि किसी भी विपत्ति का सामना करने में सहायक हो। कोष में धन-वृद्धि हेतु कौटिल्य ने कई उपाय बताए हैं। संकटकाल में राजस्व प्राप्ति हेतु वह राजा को अनुचित तरीके अपनाने की भी सलाह देता है।

दण्ड :-
दण्ड (बल, डण्डा या सेना) राज्य का मस्तिष्क हैं। प्रजा तथा शत्रु पर नियंत्रण करने के लिए बल अथवा सेना अत्यधिक आवश्यक तत्त्व है। कौटिल्य ने सेना के छः प्रकार बताए हैं। जैसे-वंशानुगत सेना, वेतन पर नियुक्त या किराए के सैनिक, सैन्य निगमों के सैनिक, मित्र राज्य के सैनिक, शत्रु राज्य के सैनिक तथा आदिवासी सैनिक। संकटकाल में वैश्य तथा शूद्रों को भी सेना में भर्ती किया जा सकता है। सैनिकों को धैर्यवान, दक्ष, युद्ध-कुशल तथा राष्ट्रभक्त होना चाहिए। राजा को भी सैनिकों की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखना चाहिए। कौटिल्य ने दण्डनीति के चार लक्ष्य बताए हैं- अप्राप्य वस्तु को प्राप्त करना, प्राप्त वस्तु की रक्षा करना, रक्षित वस्तु का संवर्धन करना तथा संवख्रधत वस्तु को उचित पात्रों में बाँटना।
          राजा राज्य की रक्षा के लिए एक सुसंगठित शक्तिशाली सेना रखेगा । यह सेना को संदर्भित करता है । राज्य में एक नियमित, बड़ी, अनुशासित और अच्छी तरह से प्रशिक्षित सेना होनी चाहिए । यह राज्य की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है । सैनिकों को उन परिवारों से भर्ती किया जाना चाहिए जो परंपरागत रूप से सेना से जुड़े हैं । सैनिकों को अच्छी तरह से भुगतान किया जाना चाहिए और उनके परिवारों को सबसे उपयुक्त तरीके से देखभाल की जानी चाहिए । उचित प्रशिक्षण और उपकरण उपलब्ध कराया जाना चाहिए । अच्छी तरह से खिलाया और अच्छी तरह से प्रशिक्षित सैनिक किसी भी लड़ाई को जीत सकते हैं । राजा को सैनिकों का ध्यान रखना चाहिए और सैनिक उसके लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए भी तैयार रहेंगे ।

मित्रा (सहयोगी और मित्र) :-
कौटिल्य ने राज्य की प्रकृति का अन्तिम गुण मित्र बताये है । यह राजा के दोस्तों को संदर्भित करता है । सम्राट को अपने पूर्वजों के पारंपरिक मित्रों के साथ दोस्ताना संबंध बनाए रखना चाहिए । उसे भी नई दोस्ती करनी चाहिए । उसे अपने दोस्तों के लिए उपहार और अन्य खुशियाँ भेजनी चाहिए । आपातकाल के समय में उनकी मदद की जानी चाहिए । उन्हें वफादार होना चाहिए । मित्र राज्य की शक्ति को जोड़ते हैं । वे विदेशी व्यापार के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण हैं ।
सुहृद (मित्र) राज्य के कान हैं। राजा के मित्र शान्ति व युद्धकाल दोनों में ही उसकी सहायता करते हैं। इस सम्बन्ध में कौटिल्य सहज (आदर्श) तथा कृत्रिम मित्र में भेद करता है। सहज मित्र कृत्रिम मित्र से अधिक श्रेष्ठ होता है। जिस राजा के मित्र लोभी, कामी तथा कायर होते हैं, उसका विनाश अवश्यम्भावी हो जाता है।

इस प्रकार कौटिल्य का सप्तांग सिद्धांत राज्य के सावयव स्वरूप (Organic form) का निरूपण करते हुए सभी अंगो (तत्त्वों) की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालता है। यद्यपि यह सिद्धांत राज्य की आधुनिक परिभाषा से मेल नहीं खाता, किन्तु कौटिल्य के राज्य में आधुनिक राज्य के चारों तत्त्व विद्यमान हैं। जनपद भूमि व जनसंख्या है, अमात्य सरकार का भाव है तथा स्वामी (राजा) सम्प्रभुत्ता का प्रतीक है। कोष का महत्त्व राजप्रबन्ध, विकास व संवर्धन में है तथा सेना आन्तरिक शान्ति व्यवस्था तथा बाहरी सुरक्षा के लिए आवश्यक है। विदेशी मामलों में मित्र महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, किन्तु दुर्ग का स्थान आधुनिक युग में सुरक्षा-प्रतिरक्षा के अन्य उपकरणों ने ले लिया है।

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