गुप्त वंश के इतिहास के स्रोतों का वर्णन करें। - History of Gupta Dynasty

गुप्त वंश के इतिहास के स्रोत : - 

उत्तर भारत में कुषाण साम्राज्य का स्थान गुप्त साम्राज्य में लिया । इस वंश के इतिहास का अध्ययन विभिन्न सोतों के आधार पर किया जा सकता है । पुराणों ( ब्रह्मांडपुराण , वायुपुराणा , विष्णुपुराण , भविष्योत्तरपुराण ) में दी गई वंशावली से गुप्तों के राजनीतिक इतिहास पर प्रकाश पड़ता है । देवीचंद्रगुप्तम् , मुद्राराक्षस ( विशाखदत्त ) , कौमुदी महोत्सव ( वज्जिका ) एवं कालिदास की रचनाओं ( रघुवंशम् , कुमारसंभवम् , मालविकाग्निमित्रम् , अभिज्ञानशाकुंतलम् ) से भी गुप्तकालीन समाज एवं संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है । बौद्ध और जैन साहित्य का भी उपयोग स्रोत के रूप में किया जा सकता है । गुप्तकाल में ही विख्यात चीनी यात्री फाहियान ने भारत की यात्रा की थी । उसका विवरण भी उपयोगी है । गुप्तों के अभिलेख और सिक्के , जो बड़ी संख्या में मिले हैं , का सहारा लिए बिना गुप्तों के इतिहास का अध्ययन नहीं किया जा सकता है । गुप्तकालीन अभिलेखों में सबसे महत्त्वपूर्ण समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति है । यह इलाहाबाद में स्थित अशोक स्तंभ पर उत्कीर्ण है । इसके रचनाकार हरिषेण थे , जो समुद्रगुप्त के राजकवि थे । इसमें समुद्रगुप्त की विजयों के अतिरिक्त उसके व्यक्तिगत गुणों का भी उल्लेख किया गया है । गुप्तकालीन मुहरों से भी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है । गुप्तों ने बड़ी संख्या में सिक्के ढलवाए । कुषाणों के बाद गुप्ता ने ही बड़ी संख्या में स्वर्ण सिक्के जारी किए । सिक्के राजनीतिक इतिहास के अतिरिक्त आर्थिक इतिहास के अध्ययन के लिए भी आवश्यक है । गुप्तकालीन मूर्तियों एवं मंदिरों से कला एवं स्थापत्य के विकास पर प्रकाश पड़ता है । 

गुप्तवंश का इतिहास - गुप्तों की उत्पत्ति एवं उनका मूल निवास स्थान विवादास्पद है । संभवतः , वे वैश्य वर्ण के थे , परंतु राजसत्ता की प्राप्ति के पश्चात क्षत्रिय कहलाए । उनका मूल निवास प्रयाग के निकट था । गुप्तवंश का संस्थापक श्रीगुप्त था । चंद्रगुप्त प्रथम ( 319-330 ई ० ) इस वंश का पहला प्रभावशाली राजा हुआ । सैनिक अभियानों एवं वैवाहिक संबंधों द्वारा अपनी स्थिति सुदृढ़ कर उसने राज्य का विस्तार किया । उसने लिच्छवि राजकुमारी ( वैशाली की ) से विवाह कर बिहार तक अपना प्रभाव बढ़ाया । 319 ई . में गुप्त संवत् का आरंभ चंद्रगुप्त प्रथम के गद्दी पर बैठने के साथ हुआ । चंद्रगुप्त का उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त ( 330-380 ई ० ) हुआ । प्रयाग प्रशस्ति में उसकी सैनिक विजयों का विवरण दिया गया है । इसके अनुसार , उसने उत्तरी भारत ( आर्यावर्त ) के 9 राजाओं , मध्य भारत के आटविक राज्यों ( जंगली राज्यों ) तथा दक्षिण भारत के 12 राज्यों को पराजित किया । उसने सीमावर्ती राज्यों एवं गणराज्यों पर भी विजय प्राप्त की । उसके सैनिक अभियानों के कारण कुछ विद्वानों ने उसे ' भारतीय नेपोलियन ' का उपनाम दिया है । मौर्यों के पश्चात समुद्रगुप्त ने ही उत्तरी और दक्षिणी भारत को एक सूत्र में बाँधा । प्रशस्ति का लेखक उसके व्यक्तिगत गुणों का उल्लेख इस प्रकार करता है- " धरती पर उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था .... उन्होंने अपने पैर के तलवे से अन्य राजाओं के यश को मिटा दिया है.... वे अजेय है......वे मानवता के लिए दिव्यमान उदारता की प्रतिमूर्ति हैं । " कुछ सिक्कों पर समुद्रगुप्त को वीणा बजाते हुए दिखलाया गया है ।

समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी चंद्रगुप्त द्वितीय ( 380-415 ई ० ) हुआ । उसके समय में गुप्त साम्राज्य का चरमोत्कर्ष हुआ । वैवाहिक संबंधों द्वारा राजशक्ति सुदृढ़ करने की परंपरा उसके समय में भी चलती रही । उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी शकों पर विजय प्राप्त करना । शकों पर विजय प्राप्त कर उसने ' विक्रमादित्य ' की उपाधि ग्रहण की । मेहरौली ( दिल्ली ) लौह - स्तंभ पर जिस राजा चंद्र का अभिलेख उत्कीर्ण है उसकी पहचान चंद्रगुप्त द्वितीय से की गई है । महाकवि कालिदास इस राजा के दरबारी थे । चीनी यात्री फाहियान ने भारत की यात्रा इसी समय में की थी ।

राजा चंद्र का महरौली (दिल्ली) लोहा स्तंभ

 चंद्रगुप्त के पश्चात गुप्तवंश में कुमारगुप्त प्रथम एवं स्कंदगुप्त दो अन्य प्रभावशाली राजा हुए । कुमारगुप्त प्रथम ने नालंदा महाविहार की स्थापना की । स्कंदगुप्त ने मध्य एशिया के बर्बर हूणों को परास्त कर गुप्त साम्राज्य की रक्षा की । स्कंदगुप्त के बाद गुप्त साम्राज्य का पतन आरंभ हुआ । दुर्बल उत्तराधिकारियों और हूणों के आक्रमण के कारण 570 ई . तक गुप्त साम्राज्य समाप्त हो गया । गुप्तों का स्थान पुष्यभूतियों ( वर्द्धनों ) , मोखरियों , मगध के उत्तर - गुप्त शासकों , गौड़ एवं अन्य राज्यों ने ले लिया । हर्षवर्द्धन के पूर्व तक उत्तरी भारत पुनः राजनीतिक रूप से विखंडित हो गया था ।

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