मात्रात्मक भूगोल : क्रांति , क्रांति , गुण एवं अवगुण
विज्ञान के क्षेत्र में हुए कई महत्त्वपूर्ण आविष्कारों एवं इंग्लैंड में घटित औद्योगिक क्रांति से भूगोल के उद्देश्य एवं क्षेत्र में युगान्तकारी परिवर्तन हुए । अब परंपरावाद का स्थान विश्लेषणवाद ने ले लिया । नव विश्लेषणात्मक शोध तकनीकों एवं नूतन विषय सामग्री द्वारा परम्परागत विचारधारा का संशोधन करने से अध्ययन प्रणाली में नवीनता आई है तथा भौगोलिक जानकारी क्रियात्मक एवं व्यावहारिकताजन्य आवाम से युक्त हुआ है । सम्प्रति भौगोलिक समस्याओं के समाधान में गणित तथा साख्यिकीय विधियों के प्रयोग तथा संगणकों ( कम्प्यूटर ) की सुविधा और भू गोल विज्ञान के प्रति सामान्य दृष्टिकोण में बदलाव से भूगोल तथा सामान्य विज्ञान में समन्वय का मार्ग प्रशस्त हुआ है । इस उपागमजन्य परिवर्तन के प्रयास को मात्रात्मक क्रान्ति की संज्ञा दी जाती है । भूगोल में मात्रात्मक क्रान्ति 1950 के आस - पास शुरू हुई जो 1957 से 1960 के मध्य अपने चरम बिन्दु पर थी , और अब वह समाप्त हो चुकी है । अकरमान ने 1958 में इस नूतन पद्धति पर अपने विचार प्रकट करते हुए बताया कि ' यद्यपि भूतकाल में भौगोलिक वितरणों के विश्लेषण में सरलतम सांख्यिकी का प्रयोग किया जाता था , किन्तु आज विषय जटिलतम सांख्यिकीय विधियों - एक पूर्ण तार्किक विकास - की ओर प्रवृत्त है ।
विश्लेषणात्मक मॉडल के प्रयोग , तथा समाश्रयण , सहसम्बन्ध , प्रसरण एवं सह - प्रसरण विश्लेषण के भूगोल में अत्यधिक प्रयोग की आशा की जाती है । इन विधितन्त्रों की जरूरत एवं मूल्य की दृष्टि से भूगोल अन्य समाज विज्ञानों से भिन्न नहीं है । स्पेट ( 1960 ) , यद्यपि मात्रात्मक विधि के प्रति कुछ सशंकित थे , इसके बावजूद मानते हैं कि ' नए भूगोलज्ञ अनुभव करेंगे कि बिना सांख्यिकीय - ज्ञान के वे समुचित रूप से सुसज्जित नहीं ' तथा अन्त में असहाय हो यह भी जोड़ा कि ' युवा - भूगोलज्ञ न होने से वे भारमुक्त हैं । " एक बौद्धिक क्रान्ति उस समय खम्म हो जाती है जब परम्परागत मान्य विचारों को , नई मान्यताओं को शामिल करने के लिए दूर फेंक दिया जाता है या परिवर्तित कर दिया जाता है । एक बौद्धिक क्रान्ति उस समय भी समाप्त हो जाती है जब क्रान्तिकारी विचार स्वयं परम्परागत बौद्धिकता के अंग बन जाते हैं । अकरमान , स्पेट या हार्टशान जब ' कुछ ' के लिए सहमत हैं , तब हम परम्परागत बौद्धिकता की बात कर रहे हैं । अतएव मेरा विचार है कि मात्रात्मक क्रान्ति जो कुछ समय तक रही , समाप्त हो चुकी है । अब किस दर से हमारे पाठ्यक्रमों में मात्रात्मक पद्धतियों को स्थान मिल रहा है , इस पर ध्यान केन्द्रित करना है ( बर्टन 1963 ) । ” यद्यपि यह क्रान्ति समाप्त हो चुकी है , इसके विभिन्न चरणों की जांच करना लाभप्रद होगा , क्योंकि इससे ‘ मात्रात्मकता क्यों किसलिए ? ' जैसे प्रश्न के लिए आधारभूमि प्रस्तुति होगी ।
भौगोलिक क्रांति की दशा एवं दिशा
भूगोल सुदीर्घकाल से एक अनुकरण करने वाला विज्ञान रहा है न कि अग्रणी । मुख्य विचारधाराओं का उद्भव अन्य क्षेत्रों में हुआ । वह हलचल जिसने भूगोल में क्रान्ति पैदा की भौतिकविदों तथा गणितज्ञों द्वारा प्रारम्भ की गई और जिसका सबसे पहले भौतिकशास्त्र , तदन्तर जीवविज्ञान में बदलाव हेतु विस्तार किया गया , आज यह अधिकांश समाज विज्ञानों - प्रमुखतः अर्थशास्त्र , मनोविज्ञान एवं समाजशास्त्र , में समुचित रूप से प्रदर्शित होता है । प्रमुख पूर्ववर्ती विज्ञानों में , जिनका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भूगोल में इस क्रान्ति को लाने में विशेष योगदान रहा है , वॉन न्यूमान ( एक गणितज्ञ ) और मार्गेस्टर्न ( अर्थशास्त्री ) अपने गेम तथा आर्थिक व्यवहार सिद्धान्त हेतु ( 1944 ) , नार्वर्ट विनेर ( 1948 ) जिसका साइबरनेटिक्स शैक्षिक सीमाओं का अतिक्रमण करने का सुझाव देता है , एवं जिफ जिसने 1949 में मानव व्यवहार तथा न्यूनतम प्रयास सिद्धान्त को प्रकाशित किया , प्रमुख हैं । भौतिक विद् स्टीवर्ट का आलेख ' जनसंख्या वितरण तथा समानता ' से सम्बन्धित आनुभाविक गणितीय नियम 1947 में ही ' ज्योग्राफिकल रिव्यू में छपा । स्टीवर्ट ‘ समाज - भौतिकी ' के विकास का अगुआ है । कुछ प्राकृतिक तथा समाज वैज्ञानिकों द्वारा 1949 में प्रीस्टन सम्मेलन में किए गए संयुक्त विज्ञप्ति से ही कदाचित , समाज विज्ञान में गणित के उपयोग का सूत्रपात हुआ ।
इसके तुरन्त बाद भूगोल में मात्रात्मकता का प्रभाव अनुभव किया गया । कई विद्वानों द्वारा मात्रात्मक - प्रयोग के प्रति सुझावों से इसका प्रारम्भ हुआ । ऐसे प्रयत्न 1939 के आस - पास भी किए गए थे , पर इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया । वर्तमान क्रान्ति के सन्दर्भ में प्रथम प्रयास स्टाहलर द्वारा किया गया , जिन्होंने भूगोल में इसके उपयोग को प्रोत्साहित किया । इसके अलावा लीस्टर , किंग , शोरले , ड्यूरी , मैकेय , उलमान आदि मात्रात्मक विधियों के अगुआ प्रयोगकर्ता हैं । मानव तथा आर्थिक भूगोल में मात्रात्मक विधियों को आत्मसात करने में विशेष कठिनाई रही । संभववादी - परम्परा के कारण यह आश्चर्यजनक नहीं ।
इस क्षेत्र में 1950 के आस - पास नेल्सन के नगरों के सेवा - निर्धारण विधि ' पर गैरिसन की टिप्पणी , भूगोल में साख्यिकीय - विधियों के कम - प्रयोग पर रेनॉल्ड तथा गैरिसन के विचारों के आगत - निर्गत स्पेट - बेरी के आर्थिक भूगोल ' में सम्पादकीय टिप्पणी में विचार ' जिसमें स्पेट ने याद दिलाया है कि “ सांख्यिकी सर्वोत्तम होते हुए भी अर्द्धजीवनयुक्त है , शेषाद्धं समझ एवं तार्किक - विश्लेषण है ” जबकि बेरी ने इसके उलट मात्रापोषकों का पक्ष लेते हुए बताया है कि “ तथ्यों , सिद्धान्तों तथा विधि - तन्त्रों के बीच स्पष्ट भेद हेतु यह पद्धति अपरिहार्य है , " डेसी , जोबलर - मैकेय , राविंसन , लुकरमान तथा बेरी आदि के कार्य शामिल हैं । 1956 के मात्रापोषकों ने विविध व्यावसायिक पत्रिकाओं में अपने विचार सविस्तार रखने प्रारम्भ कर दिए थे । 1956 में रीजनल साइन्स परिषद् की स्थापना से भूगोल में मात्रात्मकता को पुनः प्रोत्साहन मिला । पूर्ववर्ती क्रान्तिकारी अब तक भौगोलिक निर्माण के अंग बन चुके हैं तथा उनके कार्य हमारे विषय के स्वीकृत तथा एक उच्चस्तरीय अंग हैं ।
भौगोलिक तकनीक का विरोध
मात्रात्मक क्रान्ति से सम्बन्धित विरोधियों आलोचकों को पाँच वर्गों में विभाजित किया जा सकता है : कुछ लोगों का विचार है कि मात्रात्मकता का सम्पूर्ण विचार ही बुरा या निन्दनीय है , क्योंकि यह विषय को एक विपरीत एवं फलहीन दिशा की ओर ले जाएगा । स्टैम्प जैसे लोगों ने यह तर्क दिया कि " भूगोलज्ञों ने अपने औजारों ( विधि - तन्त्रों यथा मानचित्र , आदि ) को पूर्ण बनाने में बहुत समय व्यतीत किया है , उन्हें अब कुछ यथार्थ निर्माण की ओर अग्रसर होना चाहिए । जबकि तीसरे प्रकार का विरोध यह है कि सांख्यिकीय तकनीक , भूगोल के एक भाग पर ही प्रयुक्त हो सकते हैं , सम्पूर्ण भूगोल में नहीं , क्योंकि कुछ विशेषताओं की माप नहीं हो सकती है । अन्य आपत्ति इस बात पर की गई कि मात्रात्मक तकनीक यद्यपि उपयोगी है तथा उनका उपयोग भी वांछित है , किन्तु इनका अधिकतर गलत प्रयोग हुआ है , साधन में साध्य का भ्रम हुआ है तथा यह कोई नया अन्वेषण नहीं । अन्तिम आलोचना प्रयोगकर्ताओं से जुड़ा है जिसमें कहा गया है कि मात्रापोषकों में उन्माद एवं दम्भ का आधिक्य होता है । वस्तुतः क्रान्तिकारियों में नम्रता का अभाव होता ही है ।
भौगोलिक क्रांति का परिणाम
यह क्रांति इस दृष्टि से समाप्त हो गई है कि समय विशेष की क्रान्तिकारी विचारधाराएँ अब एक पद्धति बन चुकी हैं । स्पष्टतः यह एक प्रारम्भ मात्र है । एक नई पद्धति के निर्माण के अलावा इसका एक अन्य उद्देश्य भी है । यदि यह क्रान्ति मात्रात्मकता में स्वीकृत विश्वास अथवा झक या फैशन से प्रोत्साहित हुआ होता तो अपनी ही गति से इसकी इतिश्री हो चुकी होती , किन्तु इस क्रान्ति का एक अलग ही उद्देश्य था । भूगोल को अधिक वैज्ञानिक बनाने और सिद्धान्तों को विकसित करने की सही जरूरत से ही यह प्रोत्साहित हुआ था ।
गुणात्मक शाब्दिक व्याख्या या इडियोग्राफिक ( ideographic ) के प्रति असन्तोष ही मात्रात्मक क्रान्ति के उद्भव का मूल रहा है । सैद्धान्तिक तथा मॉडल - निर्माणजन्य भूगोल का विकास ही कदाचित मात्रात्मक क्रान्ति का प्रमुख प्रतिफल है । सिर्फ वर्णन करना एक कला हो सकती है , तो भी वर्णन ' वैज्ञानिक विधि का एक आवश्यक अंग है । यथार्थ विश्व की जाँच करते समय हमारा प्रथम कार्य द्रष्टव्य का वर्णन और उन अवलोकनों को सुविधाजनक उपयोग हेतु सार्थक वर्गों में विभक्त करना होता है , ज्योंही भूगोलज्ञ का एक क्षेत्र का वर्णन प्रारम्भ होता है , वह चयनात्मक हो जाता है और चयन की यही क्रिया " सार्थक क्या है ? " से सम्बद्ध चेतन या अचेतन में सिद्धान्त या परिकल्पना को शो करती है । वस्तुतः यह सार्थकता की माप किसी अन्तर्सम्बन्धजन्य नियम द्वारा ही की जा सकती है । जबकि सिद्धान्तों के विकास हेतु विभिन्न कारकों यथा , सांस्कृतिक स्वरूपों , मानव क्रियाकलापों अथवा प्राकृतिक कारकों को भू - वैन्यासिक व्यवस्था में एकरूपता के अवलोकन तथा वर्णन करना प्रथम सोपान है ।
सिद्धान्त ऐसा मापन प्रस्तुत करते हैं , जिनसे असामान्य तथा विलक्षण घटनाओं को पहचाना जा सकता है । सिद्धान्तहीन विश्व में कोई भी चीज विलक्षण नहीं होती , हर चीज ही अनन्य ( unique ) होती है । इसीलिए सिद्धान्त का महत्त्व है ।
सिद्धान्त को विकसित करने की जरूरत के साथ ही मात्रात्मक क्रान्ति का विकास हुआ , जिसने सिद्धान्तों को विकसित तथा संशोधित करने की प्रोयोगिकी प्रदान की । यह निश्चित नहीं कि प्रारम्भिक मात्रापोषक सिद्धान्त विकसित करने के लिए अभिप्रेरित थे , किन्तु अब भूगोलज्ञों को यह स्पष्ट हो गया है कि मात्रात्मकता जटिल रूप से नियम से आवद्ध है ।
वैज्ञानिक विधियों के कठोर परिपालन - सिद्धान्तों के विकसित करने तथा प्रागुक्ति - युक्त परीक्षण की जरूरत की पूर्ति हेतु गणित एक सर्वोत्तम उपलब्ध औजार है । अन्य औजार - भाषा , मानचित्र , प्रतीकात्मक तर्क - भी उपयोगी तथा कुछ दृष्टान्तों में काफी होते हैं , किन्तु गणित की भाँति - हमारी जरूरतों की किसी से भी पूर्ति नहीं होती ।
सिद्धान्तों का परिमाणन एवं सम्बन्धों के प्रदर्शनार्थ गणित के उपयोग का दो आधारों पर समर्थन किया जा सकता है : प्रथम , यह ज्यादा दृढ़ होता है , तथा द्वितीय , अधिक महत्त्वपूर्ण , व आत्मवंचना रहित या स्वयं को धोखे में न रखने का उपयुक्त साधन है ।
सिद्धान्त एवं वैज्ञानिक नियम
' सिद्धान्त ' एक सामान्य कथन है , जो विविध चरों के बीच अन्तसम्बन्धों को परिभाषित एवं विश्लेषित करता है । यह किसी वैज्ञानिक की कल्पना का मूर्तरूप किसी विद्वान के विषयगत अनुभवों का निष्कर्ष , या श्रमपूर्ण निर्मित संरचना पर आधारित अनेकानेक परीक्षणों , अन्वेषणों और निष्कर्षों से परिचत हो सकता है । चाहे जिस भी स्रोत से यह प्राप्त हो , निष्कर्ष रूप में , एक सिद्धान्त में जन्तर्सम्बन्धों के जिस स्वरूप पर अत्यधिक महत्त्व दिया जाता है , वह अमूर्त निगमन ( abstract deduction ) के माध्यम से वर्णित किया जा सकता है ।
सिद्धान्त एक ऐसी चलनी प्रदान करता है , जिससे असमान तथ्यों को संक्षेपित किया जाता है तथा जिसकी अनुपस्थिति में तथ्य अर्थहीन - हेर ही रह जाते हैं । एक मान्य सिद्धान्त को आनुभाविक जाँच ( empirical varification ) द्वारा साबित किया जा सकता है । ' अमूर्त निगमन ' शब्द उस तर्क प्रक्रिया की ओर निर्देश करता है , जिससे आन्तरिक रूप से समान तथ्य समूहों से एक सामान्य निष्कर्ष का आकलन किया जा सके , जबकि ' आनुभविक जाँच ' शब्द अमूर्त सिद्धान्तों को मान्य अथवा अमान्य करने के लिए ऑकड़ा - संग्रह प्रक्रिया का बोध कराता है ।
वैज्ञानिक विधि : वैज्ञानिक पद्धति वह प्रक्रिया है , जिसके द्वारा सिद्धान्तों की रचना , उनका विकास तथा उनमें परिष्करण किया जाता है । भौगोलिक शोध में वैज्ञानिक विधियों की भूमिका का गहन विवेचन किया गया है । यहाँ इसके आधारभूत पक्ष पर ही ध्यान केन्द्रित है । इस प्रक्रिया में सबसे पहले अध्ययन किए जाने वाले विषय ( समस्या या निर्मेय problem ) की परिभाषा करने के बाद परिकल्पना ( hypothesis ) का निरूपण किया जाता है । परिकल्पनाएँ मात्रात्मक विश्लेषण की आधारशिला होती हैं , जब कि ' निर्भय ' की परिभाषा करना अति आवश्यक होता है ।
क्षेत्र तथा कालगत विविधताएं
" भूगोल का सम्बन्ध स्थानिक या भूविन्यासगत विभिन्नताओं ( spatial variations ) से होता है , " ऐसा ऊपर स्पष्ट हुआ । कभी - कभी स्थानिक , कालगत तथा अन्य विभिन्नताओं के बीच अंतर किया जाता है । भूगोल में एक स्थानिक विभिन्नता , क्षेत्र में अवलोकनों ( तथ्यों ) की सापेक्ष स्थिति हेतु प्रयुक्त होती है ' । सापेक्ष स्थिति को किसी रेखा के सहारे उद्भव बिन्दु से दूरी के रूप में , एक सतह पर दो निर्देशांकों ( co - ordinates ) , या त्रिविमीय संदर्भ में क्षेत्र में तीन निर्देशांकों के रूप में प्रकट किया जा सकता है । पृथ्वीतल , एक द्विविमीय उदाहरण है , जिस पर एक स्थान दूसरे हर स्थानों से एक निश्चित सम्बन्ध रखता है । इस प्रकार , भूगोल में पढ़े जाने वाले सभी वस्तु तथा अवलोकन , किसी समय विशेष में , क्षेत्र में एक विशिष्ट स्थिति धारण करते हैं और अपनी इस विशिष्ट स्थिति के कारण ही ये सभी क्षेत्र में सभी दूसरी वस्तुओं एवं अवलोकनों से विशेष रूप से सम्बन्धित होते हैं ।
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