Answer By - Rohit Shrivastva
भारतीय समाज और शासन व्यवस्था में ग्राम पंचायत बहुत ही पुरानी अवधारणा है जिसके स्वरूप में समय के साथ-साथ बदलाव भी देखने को मिलता रहता है लेकिन निसंदेह ग्रामीण विकास में इसका एक अहम योगदान रहा है। गाँधी जी के शब्दों में अगर हम इसे समझने की कोशिश करें तो इसे बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। स्वतंत्रता से पूर्व उन्होंने पंचायती राज की कल्पना करते हुए कहा था कि सम्पूर्ण गाँव में पंचायती राज होगा, उसके पास पूरी सत्ता और अधिकार होंगे। अर्थात सभी गाँव अपने-अपने पैरों पर खड़े होंगे और अपनी जरूरतों की पूर्ति उन्हें स्वयं करनी होगी। साथ ही दुनिया के विरुद्ध अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी यही ग्राम स्वराज में पंचायती राज हेतु मेरी अवधारणा है। देखिए, कितने सरल शब्दों में गाँवों की प्रगति को हिंदुस्तान की प्रगति से जोड़ दिया। इसका मकसद था सत्ता की डोर को देश की संसद से लेकर गाँवों की इकाई तक जोड़ना।
भारत को ‘गाँवों का देश’ कहा जाता है जहाँ आज भी 70 प्रतिशत आबादी निवास करती है और आज देशभर में लगभग ढाई लाख ग्राम पंचायतें निरंतर भारत के विकास में अहम भूमिका निभा रही हैं। महात्मा गाँधी से पहले और उसके बाद भी ग्रामीण विकास के लिये निरंतर काम होते रहे हैं लेकिन गाँधीजी ने एक दार्शनिक की तरह इस विचारधारा को विश्व के समक्ष रखा इसीलिए वो मील के पत्थर की तरह है और उनका ग्राम स्वराज दशकों बाद भी इतना ही प्रासंगिक है। क्योंकि इसमें गाँवों की आत्मनिर्भरता की बात है, उनके सशक्तीकरण की बात है, शोषण के विरुद्ध एक ठोस नीति की बात है।
भारत में ग्रामीण विकास की प्रक्रिया पुरातनकाल से किसी ना किसी रूप में चलती आ रही है। अगर हम भारत के अतीत में झांके तो हमारे यहाँ प्राचीनकाल से ही पंचायती राज व्यवस्था अस्तित्व में रही है, भले ही इसे विभिन्न नाम से विभिन्न कालखंडों में जाना जाता रहा हो। भारत के प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ ऋग्वेद में ‘सभा’ एवं ‘समिति’ के रूप में लोकतांत्रिक स्वायत्तशासी संस्थाओं का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद ग्रंथ में ‘ग्रामणी’ शब्द भी आता है जो पंच का पर्याय है।
रामायण, महाभारत महाकाव्यों के काल में शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थे। गाँव के पंच लोगों द्वारा स्थानीय जन से कर वसूल कर राजा का सहयोग करना वर्णित है। मनुस्मृति में भी मनु ग्राम के प्रशासन में स्वशासन का उल्लेख है। इसके अलावा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी कम-से-कम 100 परिवार तथा अधिक से अधिक 500 परिवार के एक गाँव की रचना का उल्लेख किया गया है।
इतिहास में ऐसे अनेक मौके आए जब केन्द्र में राजनैतिक उथल-पुथल के बावजूद सत्ता परिवर्तनों से निष्प्रभावित रहकर भी ग्रामीण-स्तर पर यह स्वायत्तशासी इकाइयां पंचायतें आदिकाल से निरंतर किसी-न-किसी रूप में कार्यरत रही हैं। इसी तरह मौर्यकाल, गुप्तकाल, सल्तनतकाल, मध्यकाल तथा ब्रिटिशकाल तक गाँव के शासन में केन्द्र का हस्तक्षेप कम से कम था।
लेकिन ये भी सत्य है कि अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये राजाओं, शासकों, प्रशासनिक तंत्र, राजनीतिक तंत्र द्वारा इनका शोषण भी लगातार होता रहा है। अपनी-अपनी इच्छानुसार इनका दोहन भी किया गया।
ब्रिटिश शासनकाल में 1882 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड रिपन ने स्थानीय स्वायत्त शासन की स्थापना का प्रयास किया था, लेकिन वह सफल नहीं हो सका। 1947 में स्वतंत्रता से पूर्व सैकड़ों वर्षों के विदेशी शासन में यह ताना-बाना बिखर गया। लेकिन समय के साथ अंग्रेजी हुकूमत भी इस संस्थान के महत्त्व को समझ चुकी थी और निरर्थक भार अपने ऊपर वहन करने के पक्ष में नहीं थी।
ब्रिटिश शासकों ने स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं की स्थिति पर जाँच करने तथा उसके संबंध में सिफारिश करने के लिये 1882 तथा 1907 में शाही आयोग का गठन किया। इस आयोग ने स्वायत्त संस्थाओं के विकास पर बल दिया, जिसके कारण 1920 में संयुक्त प्रांत, असम, बंगाल, बिहार, मद्रास और पंजाब में पंचायतों की स्थापना के लिये कानून बनाए गए। लेकिन इस दौरान पंचायतों के अधिकारों में कमी आई और वो एक कमजोर संस्थान के रूप में उभरा जिसका नतीजा ये हुआ कि गाँव लगातार बदहाल होते गए और आजादी के दशकों बाद भी हम उस खाई को पाट नहीं पाए हैं। निसंदेह इसका दोष कहीं-न-कहीं उन योजनाओं और प्रशासनिक तंत्र को जाता है जो कागजी योजनाओं को धरातल की वास्तविकता पर उतारने में असफल रहे।
‘ग्राम स्वराज’ के सपने को पूरा करने के लिये पूरे देश में विकेंद्रीकरण के माध्यम से पंचायतों का गठन किया गया। भारतीय संविधान में पंचायतों को विशेष महत्त्व देते हुए संविधान के अनुच्छेद 40 के नीति निर्देशक सिद्धांतों में उल्लेख किया गया है- “सरकार ग्राम पंचायतों की स्थापना के लिये आवश्यक कदम उठाएगी एवं उन्हें ऐसी शक्तियाँ और अधिकारों से युक्त करेगी जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाई के रूप में सक्षम बनाने के लिये उपयुक्त हो।” उपरोक्त पंक्तियों में गाँधी जी के ग्रामीण सशक्तीकरण के सपनों को धरातल पर उतारने की झलक साफ देखी जा सकती है।
जनवरी 1957 में बलवंत राय मेहता समिति का गठन किया गया जो ग्रामीण आबादी की समस्याओं के अध्ययन के लिये बनी थी। इस कमेटी ने उसी वर्ष नवंबर में अपनी रिपोर्ट सरकार को प्रस्तुत की। समिति की सिफारिशों को स्वीकृत करते हुए इन संस्थाओं का नाम ‘पंचायती राज’ रखा गया।
स्वतंत्रता के बाद पंचायती राज की स्थापना भारत में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की अवधारणा को साकार करने के लिये महत्त्वपूर्ण कदम था। राजस्थान के नागौर जिले में पहली बार गाँधीजी के सपनों के भारत की शुरुआत हुई जब 1959 में यहाँ पर पंचायती राज व्यवस्था बलवंत राय समिति की सिफारिशों के अनुरूप लागू की गईं। इस दौर का भारत वर्तमान भारत से बहुत अलग था। आजादी मिले एक दशक हो चुका था लेकिन घोर गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी, महामारी, अंधविश्वास, जात-पात, छुआछूत जैसी असंख्य बीमारियाँ गाँव के रग-रग में बस चुकी थी। महिलाओं और बच्चियों की दुर्दशा का वर्णन करना भी कठिन है। ऐसे में पंचायती राज एक उम्मीद की किरण बनकर उभरा। पंचायती राज का उद्देश्य गाँवों को स्वावलंबी बनाना था। इस व्यवस्था को राष्ट्रवादी चिंतक पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों से भी समझा जा सकता है जिसमें ‘अंत्योदय’ की बात कही गई है। यानी समाज के अंतिम छोर पर खड़े मनुष्य तक भी प्रगति का लाभ पहुँचाना और अंतिम छोर पर खड़ा मनुष्य वो है जो गाँव में बसता है, खेतों, खलिहानों में काम करता है।
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपने एक भाषण में बेहिचक ये स्वीकार किया था कि हमारे नीति निर्माताओं और अधिकारियों को आदत हो गई है चोटी पर से नीचे समस्या को देखने की जबकि जरूरत है समस्या को नीचे से ऊपर देखा जाए। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा राजस्थान के नागौर जिले के बगदरी गाँव में 2 अक्टूबर, 1959 को पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई। इसके बाद धीरे-धीरे पूरे भारत में इस प्रणाली को अपनाया गया। लेकिन इसको आशानुरूप सफलता नहीं मिली क्योंकि धन के लिये राज्यों पर आश्रित होने और संस्थान के अन्य सदस्यों के बीच मतभेद की समस्याएँ थी। इसके लिये समय-समय पर संशोधन भी हुए जो पंचायती राज व्यवस्था के लिये जरूरी थे लेकिन 24 अप्रैल, 1993 को पंचायती राज के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाया गया था क्योंकि इसी दिन संविधान में 73वें संशोधन के माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा हासिल कराया गया और इस तरह महात्मा गाँधी के ग्राम स्वराज के स्वप्न को वास्तविकता में बदलने की दिशा में एक कदम और बढ़ाया गया जिसके अंतर्गत एक त्रि-स्तरीय ढाँचे की स्थापना की गई।
ये संशोधन अशोक मेहता समिति की सिफारिशों के अनुरूप था जिसके अंतर्गत ग्राम-स्तर पर ग्रामसभा की स्थापना की प्रस्तावना की गई थी और ये भी सुनिश्चित किया गया कि हर पाँच साल में पंचायतों के नियमित चुनाव होंगे और इस तरह के कई अन्य महत्त्वपूर्ण सुझाव भी थे जिसने इस संस्थान मजबूती प्रदान की। 73वें और 74वें संविधान संशोधन ने पंचायती राज और नगरपालिकाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया। अब त्रि-स्तरीय प्रणाली आरम्भ की गई जिसमें ग्रामसभा सबसे उच्च संस्था, पंचायत समिति मध्य में और सबसे निचले स्तर पर ग्राम पंचायत का गठन किया गया। भारतीय लोकतांत्रिक संरचना में शासन के तीसरे स्थानीय स्तर पर पंचायती राज प्रणाली में ग्रामसभा प्रत्यक्ष लोकतंत्र का प्रतीक है जिसमें अपेक्षा की गई थी कि स्थानीय जनसहभागिता के माध्यम से गाँवों का विकास किया जाएगा। ग्राम पंचायतों और ग्रामसभा के बीच वही संबंध होगा जो मंत्रिमंडल और विधानसभा का होता है। 73वें संविधान संशोधन में जमीनी-स्तर पर जन संसद के रूप में ऐसी सशक्त ग्रामसभा की परिकल्पना की गई है जिसके प्रति ग्राम पंचायत जवाबदेह हो। इस तरह सुधारों के दौर से गुजरती हुई पंचायती राज व्यवस्था मुकम्मल अवस्था में पहुँच गई।
हम सभी जानते हैं खेती-किसानी भारतीय अर्थव्यवस्था की नींव है और किसानों की उसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। ये किसान सालभर में दो या कहीं-कहीं 3 फसलें उपजा पाने में कामयाब भी होते हैं लेकिन ये गाँव जितने छोटे दिखते हैं उनकी समस्याएँ उतनी ही विकराल और बड़ी हैं। जैसाकि पहले ही बताया गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी, बाढ़ या सुखाड़, खराब स्वास्थ्य सेवाओं से हमारे गाँव लंबे समय तक बेहाल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इस तस्वीर में अभी भी बहुत ज्यादा बदलाव आया है लेकिन इतना जरूर है कि युद्धस्तर पर प्रयास केंद्र और राज्य सरकारों के द्वारा किए जा रहे हैं।
केंद्र या राज्यों की योजनाएँ तभी सफल हो सकती हैं जब पंचायतें इसे पूरे मनोयोग से लागू करें। ग्राम पंचायतें अपनी विभिन्न समितियों के माध्यम से गाँव में विकास कार्यों को संचालित करती हैं जैसे नियोजन एवं विकास समिति, निर्माण एवं कार्य समिति, शिक्षा समिति, जल प्रबंधन समिति समेत अनेक समितियाँ होती हैं जो ग्रामीण विकास से जुड़े मुद्दों की देखरेख करती हैं। अगर हम ग्राम पंचायत के कामों को देखें तो इनके अधिकार क्षेत्र में ग्राम विकास सम्बन्धी अनेक कार्य हैं जैसे कृषि, पशुधन, युवा कल्याण, चिकित्सा, रख-रखाव, छात्रवृत्तियाँ, राशन की दुकानों के आवंटन जैसे छोटे-बड़े बहुत से महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं जिसके लिये उन्हें किसी और का मुँह नहीं ताकना होता है।
गाँव में स्वच्छ पेयजल और खेतों के लिये पानी का प्रबंधन काफी चुनौतीपूर्ण काम है। इस काम में पंचायतों की भूमिका बड़ी हो जाती है क्योंकि ज्यादातर झगड़े पानी के असमान वितरण को लेकर होते हैं। मनरेगा के माध्यम से पोखर, तालाब, कुँओं का निर्माण किया जा रहा है जिससे इस तरह के भयावह हालात नहीं आए।
ग्रामीणों को शीघ्र न्याय-ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 केंद्र सरकार के एक महत्त्वपूर्ण फैसले के अनुसार पंचायत-स्तर पर ही ग्राम न्यायालय की स्थापना भी की गई। जिससे अदालतों के ऊपर से मुकदमों का कुछ बोझ तो कम हुआ ही; साथ ही, गरीब ग्रामीण को बिना दूर-दराज में बने न्यायालयों के चक्कर लगाए, कम खर्च में शीघ्र न्याय भी मिलता है इन ग्राम न्यायालयों में भी पंचायतों की प्रमुख भागीदारी रहती है।
ये पंचायतें न सिर्फ खेती-किसानी या अन्न भंडारण में ग्रामीणों की मदद करती हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ पंचायतों ने अभूतपूर्व प्रयास करते हुए गाँवों में बने हस्तशिल्प को न केवल विश्व मंच तक पहुँचाने में मदद की है बल्कि एक बाजार विकसित किया है। वर्तमान सरकार की ऐसी अनेक योजनाएँ हैं जो गाँवों को आत्मनिर्भर बना रही हैं लेकिन सरकार की बड़ी योजनाएँ स्किल इंडिया, स्टैंडअप इंडिया को जन-जन तक पहुँचाने में पंचायतों की उल्लेखनीय भागीदारी जरूरी है। इस बार के बजट में भी ग्राम पंचायतों और नगरपालिकाओं को अनुदान के रूप में 2.87 लाख करोड़ रुपये आवंटित किए गए जोकि 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार किया गया है। पंचायती राज संस्थानों की मदद के लिये नई योजना राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान का भी प्रस्ताव किया गया है।
सामाजिक अभियानों में पंचायतों की भागीदारी- स्वच्छ भारत अभियान का असर देशव्यापी पूरी दुनिया ने देखा। 60 प्रतिशत भारतीय 2 वर्ष पूर्व तक खुले में शौच कर रहा था लेकिन पंचायतों ने विभिन्न जन-जागृति अभियानों के माध्यम से गाँवों में उल्लेखनीय कार्य किया है। इसी का नतीजा है कि आज घर-घर शौचालय है। स्वच्छ ईंधन की दिशा में हम बहुत आगे तक आ चुके हैं। निसंदेह इसके लिये पंचायते न्यायवाद का पात्र हैं।
आज शिक्षा का अधिकार कानून के तहत हर गाँव में स्कूलों का सफलतापूर्वक संचालन हो रहा है। उसमें भी पंचायतों की बड़ी भूमिका है जिसकी देखरेख में ये योजनाएँ फल-फूल रही हैं। मनरेगा के तहत पंचायतों को ना केवल ग्रामीणों को सौ दिन रोजगार देने का अधिकार प्राप्त हुआ बल्कि इसके माध्यम से अनेक निर्माण कार्य- क्या होना है, कहाँ होना है ये हक भी मिला।
महिलाओं की भागीदारी- पिछले कुछ वर्षों में महिलाएँ भी ग्राम पंचायत-स्तर पर काफी सक्रिय हुई हैं। हालाँकि ये बात भी किसी से छुपी नहीं है कि कई गाँवों में आज भी महिला सरपंचों के पति उनकी जगह पर सत्ता की बागडोर संभालते हैं लेकिन इसके बावजूद कई गाँवों में महिलाओं की भूमिका मजबूत होने से माहौल बेहतर हुआ है और लड़कियों के प्रति भेदभाव के रवैये की घटनाओं में भी कमी देखने को मिली है। देश के कई राज्यों में गाँवों का नेतृत्व अब कुछ ऐसे पढ़े-लिखे हुनरमंद लोगों के हाथों में है जो किसी मल्टीनेशनल कंपनी तक को चलाने का हुनर रखते हैं। राजस्थान में एक मैनेजमेंट प्रोफेशनल छवि राजावत ने ग्रामसभा में प्रबंधन की मिसाल दुनिया के सामने पेश की है। ऐसे लोग न सिर्फ नए विचार और उपाय गाँवों में ला रहे हैं बल्कि सोशल मीडिया जैसे नए माध्यमों का इस्तेमाल कर दुनिया से सीधे जुड़ भी रहे हैं।
ई-पंचायत - ग्राम पंचायतों को हाईटेक करना डिजिटल इंडिया बनाने की दिशा में एक अहम कदम है जिससे लोगों को पंचायत-स्तर पर ही ई-गवर्नेंस की सुविधाएँ मिल सकें। किसी भी सुविधा के लिये ग्रामीण लोग पंचायत से ही आवेदन कर सकें, इसके लिये पंचायत भवनों में ही अलग कक्ष बनाए गए हैं। ई-पंचायत के जरिए लोग जान सकेंगे कि ग्राम विकास के लिये कितना पैसा आया, कहाँ खर्च हुआ, कौन-कौन से काम होने हैं, मनरेगा और वो तमाम जानकारियाँ क्योंकि इस पर सभी विवरण दर्ज होंगे। ई-पंचायत न सिर्फ सशक्त भारत की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है बल्कि इससे भ्रष्टाचार-मुक्त समाज बनाने की दिशा में भी काफी सहयोग मिलेगा जिसके लिये वर्तमान सरकार प्रतिबद्ध है। पंचायती राज मंत्रालय द्वारा राष्ट्रव्यापी सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ये एक अनूठी पहल है जिसके द्वारा देश की 2.45 लाख पंचायतों के कार्यों का स्वचालन करना है।
निसंदेह पंचायतों की भूमिका अब इतनी सीमित नहीं है उन्हें जरूरी अधिकार और धन दोनों ही चीजें मिल रही हैं जिसका असर अब जमीनी-स्तर पर दिखता है। जब कभी आप गाँव की फिसलती सड़कों पर जाएँ या 24 घंटे बिजली देखकर चौंक जाएँ या गाँव के पक्के मकान, लहलहाते खेत और उसकी समृद्धि देख आप ईर्ष्या करने पर मजबूर हो जाएँ तो समझ लीजिए आप एक ऐसे जागरूक गाँव में हैं जहाँ पंचायतें सिर्फ नाम की नहीं है और यहाँ यथार्थ में काम हो रहा है ऐसे ईर्ष्या के अवसर मुझे बहुत बार मिले हैं जब कभी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार या हरियाणा के गाँवों को करीब से जानने का मौका मिला है। ज्यादातर गाँवों की महिला सरपंच न सिर्फ गाँव में खुशहाली लाई हैं बल्कि अंधविश्वास, रूढ़ियों को भी तोड़ा है, समाज को एक सूत्र में बाँधने का काम किया है। कभी-कभार खाप पंचायतों की खबरें भी आपको पढ़ने को मिलती होंगी लेकिन इन खाप पंचायतों को कोई संवैधानिक दर्जा नहीं मिला हुआ इसलिये पंचायतों से उनकी तुलना न करें। पंचायती राज व्यवस्था को लागू हुए छह दशक होने को आए हैं। इसके तहत ग्राम विकास तो हुआ है लेकिन इसको अभी मीलों लंबा सफर तय करना है खासतौर से पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में। उम्मीद की जानी चाहिए कि पंचायतों के अधिकार बढ़ने और उन्हें क्षेत्र विकास के लिये धनराशि आवंटित किए जाने के जो निर्णय लिये गये हैं, उन सुधारों का सकारात्मक असर गाँवों पर देखने को मिलेगा लेकिन शत-प्रतिशत सफलता तभी मिलेगी जब गाँवों में ही रोजगार औ उच्च शिक्षा के अवसर देखने को मिलेंगे जिससे गाँवों से शहरों की ओर पलायन थमेगा। निसंदेह ऐसे भविष्य की आशा की जा सकती है।
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