इस कार्यक्रम की शुरुआत चौथी पंचवर्षीय योजना में हुई । इसका उद्देश्य सूखा संभावी क्षेत्रों में लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाना और सूखे के प्रभाव को कम करने के लिए उत्पादन के साधनों को विकसित करना था । पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में इसके कार्यक्षेत्र को और विस्तृत किया गया । प्रारंभ में इस कार्यक्रम के अंतर्गत ऐसे सिविल निर्माण कार्यों पर बल दिया गया जिनमें अधिक श्रमिकों की आवश्यकता होती है । परंतु बाद में इसमें सिंचाई परियोजनाओं , भूमि विकास कार्यक्रमों , वनीकरण , चरागाह विकास और आधारभूत ग्रामीण अवसंरचना जैसे विद्युत , सड़कों ,, बाजार , ऋण सुविधाओं और सेवाओं पर जोर दिया ।
पिछड़े क्षेत्रों के विकास की राष्ट्रीय समिति ने इस कार्यक्रम के क्रियान्वयन की समीक्षा की जिसमें यह पाया गया कि यह कार्यक्रम मुख्यतः कृषि तथा इससे संबद्ध सेक्टरों के विकास तक ही सीमित है और पर्यावरणीय संतुलन पुनःस्थापन पर इसमें विशेष बल दिया गया । जनसंख्या वृद्धि के कारण लोग कृषि के लिए सीमांत भूमि का उपयोग करने के लिए बाध्य हैं जिससे पारिस्थितिकीय निम्नीकरण हो रहा है । अत : सूखा संभावी क्षेत्रों में वैकल्पिक रोजगार अवसर पैदा करने की आवश्यकता है । इन क्षेत्रों का विकास करने की अन्य रणनीतियों में सूक्ष्म - स्तर पर समन्वित जल - सभर विकास कार्यक्रम अपनाना शामिल है । सूखा संभावी क्षेत्रों के विकास की रणनीति में जल , मिट्टी , पौधों , मानव तथा पशु जनसंख्या के बीच पारिस्थितिकीय संतुलन , पुनःस्थापन पर मुख्य रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए ।
1967 में योजना आयोग ने देश में 67 जिलों ( पूर्ण या आशिंक ) की पहचान सूखा संभावी जिलों के रूप में की । 1972 में सिंचाई आयोग ने 30 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र का मापदंड लेकर सूखा संभावी क्षेत्रों का परिसीमन किया । भारत में सूखा संभावी क्षेत्र मुख्यत : राजस्थान , गुजरात , पश्चिमी मध्य प्रदेश , महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र , आंध्र प्रदेश के रायलसीमा और तेलंगाना पठार , कर्नाटक पठार और तमिलनाडु की उच्च भूमि तथा आंतरिक भाग के शुष्क और अर्ध - शुष्क भागों में फैले हुए हैं । पंजाब , हरियाणा और उत्तरी राजस्थान के सूखा प्रभावित क्षेत्र सिंचाई के प्रसार के कारण सूखे से बच जाते हैं ।
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